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इ꣡न्द्रो꣢ दधी꣣चो꣢ अ꣣स्थ꣡भि꣢र्वृ꣣त्रा꣡ण्यप्र꣢꣯तिष्कुतः । ज꣣घा꣡न꣢ नव꣣ती꣡र्नव꣢꣯ ॥१७९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

इन्द्रो दधीचो अस्थभिर्वृत्राण्यप्रतिष्कुतः । जघान नवतीर्नव ॥१७९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ꣡न्द्रः꣢꣯ । द꣣धीचः꣢ । अ꣣स्थ꣡भिः꣢ । वृ꣣त्रा꣡णि꣢ । अ꣡प्र꣢꣯तिष्कुतः । अ । प्र꣣तिष्कुतः । जघा꣡न꣢ । न꣣वतीः꣢ । न꣡व꣢꣯ ॥१७९॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 179 | (कौथोम) 2 » 2 » 4 » 5 | (रानायाणीय) 2 » 7 » 5


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में यह बताया गया है कि रात्रि में जो निशाचर प्रकट हो जाते हैं, उनका वध कैसे होता है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अप्रतिष्कुतः) आन्तरिक देवासुर-संग्राम में असुरों से प्रतिकार न किया गया अथवा असुरों के मुकाबले में पराजित न होता हुआ (इन्द्रः) बलवान् जीवात्मा व परमात्मा (दधीचः) ध्यान में संलग्न मन को (अस्थभिः) अस्थि-तुल्य सुदृढ़ सात्त्विक वृत्तियों से (नवतीः नव) निन्यानवे (वृत्राणि) घेरनेवाले निशाचरों को (जघान) नष्ट कर देता है। निन्यानवे निशाचर हैं—दस इन्द्रियाँ, दस प्राण, आठ चक्र, अन्तःकरणचतुष्टय और शरीर—इन तैंतीस साधनों से भूतकाल में किये गये, वर्तमान में किये जा रहे तथा भविष्य में किये जानेवाले पाप। उन सबको जीवात्मा और परमात्मा सावधान मन की सात्त्विक वृत्तियों से नष्ट कर देते हैं ॥५॥

भावार्थभाषाः -

पूर्व के दो मन्त्रों में रात्रि का और उसके निवारणार्थ उषा के प्रादुर्भाव का क्रमशः वर्णन किया गया था। इस मन्त्र में रात्रियों में उत्पन्न होनेवाले निशाचरों के विनाश का वर्णन है कि इन्द्र दध्यङ् की हड्डियों से उन्हें मार देता है। यह इन्द्र मनुष्य के शरीर में विद्यमान जीवात्मा और हृदय में स्थित परमात्मा है। दध्यङ् मन है। उस मन की सात्त्विक वृत्ति रूप हड्डियों से उन निशाचरों का वध हो जाता है ॥५॥ इस मन्त्र की व्याख्या में विवरणकार माधव ने इस प्रकार इतिहास प्रदर्शित किया है—कालकंज नामक असुर थे। उन असुरों से सताये जाते हुए देव ब्रह्मा के समीप पहुँचकर बोले—भगवन्, कालकंज असुर हमें सता रहे हैं, उनके मारने का उपाय कीजिए। यह सुनकर उसने देवों को कहा—दधीचि नाम का ऋषि है, उसके पास जाकर उसे कहो, वह मारने का उपाय कर देगा। यह सुनकर वे वैसा ही करना स्वीकार करके उस दधीचि के समीप पहुँचकर बोले—भगवन्, हमारे अस्त्रों को असुरों का पुरोहित शुक्र चुरा लेता है, उससे उनकी रक्षा कीजिए। उस ऋषि ने उनसे कहा कि इन अस्त्रों को मेरे मुख में डाल दो। तब मरुद्गणों सहित इन्द्र आदि देवों ने अस्त्र उसके मुख में डाल दिये। फिर समय आने पर जब देवासुरसंग्राम उपस्थित हुआ तब ऋषि के पास पहुँच देव बोले—भगवन्, अब वे अस्त्र हमें दे दीजिए। तब ऋषि ने कहा—वे तो पच गये। अब वे पुनः नहीं मिल सकते। तब प्रजापति आदि देव बोले—भगवन्, प्राणत्याग कर दीजिए। यह सुनकर उसने प्राणत्याग कर दिया। तब दधीचि की अस्थियों से इन्द्र ने वृत्रों का वध किया । सायण ने शाट्यायनियों का उल्लेख करते हुए उनके नाम से यह इतिहास लिखा है—अथर्वा के पुत्र दधीचि जब जीवित थे तब उनके देखने से ही असुर पराजित हो जाते थे। फिर जब वे स्वर्गवासी हो गये तब भूमि असुरों से भर गयी। तब इन्द्र ने उन असुरों से युद्ध करने में स्वयं को असमर्थ पाकर जब उस ऋषि की खोज की तब उसने सुना कि वे तो स्वर्ग चले गये। तब वहाँ के लोगों से पूछा कि क्या उन ऋषि का कोई अङ्ग बचा हुआ है? उन लोगों ने उसे बतलाया कि उसका घोड़ेवाला सिर अवशिष्ट है, जिस सिर से उसने अश्वि देवों को मधुविद्या का प्रवचन किया था, पर हम यह नहीं जानते कि वह कहाँ है। तब इन्द्र ने उसने कहा कि उसे खोजो। उन्होंने उसे खोजा और शर्यणावत् सरोवर में, जो कुरुक्षेत्र के जघनार्ध में प्रवाहित होता है, उसे पाकर ले आये। उसके सिर की अस्थियों से इन्द्र ने असुरों का वध किया। कुछ नवीन पात्रों को कल्पित कर पुराण, महाभारत आदियों में भी कुछ-कुछ भेद से इस प्रकार की कथाएँ वर्णित हैं। ये सब कथाएँ इसी मन्त्र को आधार बनाकर रची गयी हैं। वे वास्तविक नहीं, अपितु आलङ्कारिक ही जाननी चाहिएँ। आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक क्षेत्रों में सर्वत्र ही देवासुरसंग्राम चल रहा है। मनुष्य के मन में दिव्य प्रवृत्तियों और आसुरी प्रवृत्तियों का संग्राम आध्यात्मिक क्षेत्र का संग्राम है, जैसा हमारे द्वारा कृत इस मन्त्र की व्याख्या में स्पष्ट है। इन्द्र परमेश्वर दध्यङ् सूर्य की अस्थियों से अर्थात् अस्थिसदृश किरणों से मेघों का और रोग आदियों का वध करता है, यह अधिदैवत व्याख्या है। इन्द्र राजा दध्यङ् सेनापति की अस्थियों अर्थात् अस्थियों के समान सुदृढ़ शस्त्रास्त्रों से शत्रुओं का संहार करता है, यह अधिभूत व्याख्या है। वेदों में दध्यङ् नाम के किसी ऐतिहासिक मुनिविशेष की गाथा का होना तो संभव ही नहीं है, क्योंकि वेद सभी ऐतिहासिक मुनियों से पूर्व ही विद्यमान थे और पूर्ववर्ती वेद में परवर्तियों का इतिहास कैसे हो सकता है? ऋषि दयानन्द ने ऋग्भाष्य (ऋ० १।८४।१३) में इस मन्त्र की व्याख्या में सूर्य के दृष्टान्त से सेनापति का कृत्य वर्णित किया है। वहाँ उन द्वारा प्रदर्शित भावार्थ यह है—यहाँ वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। मनुष्यों को उसे ही सेनापति बनाना चाहिए जो सूर्य के समान दुष्ट शत्रुओं का हन्ता और अपनी सेना का रक्षक हो ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

निशायां ये निशाचराः प्रादुर्भवन्ति ते कथं हन्यन्ते इत्याह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अप्रतिष्कुतः२) आन्तरिके देवासुरसंग्रामे असुरैः अप्रतिकृतः अप्रतिस्खलितो वा। अप्रतिष्कुतः अप्रतिकृतः अप्रतिस्खलितो वेति निरुक्तम्। ६।१६। (इन्द्रः) बलवान् जीवात्मा परमात्मा वा (दधीचः) ध्यानतत्परस्य मनसः। दध्यङ् प्रत्यक्तो ध्यानमिति वा प्रत्यक्तमस्मिन् ध्यानमिति वा। निरु० १२।३३। (अस्थभिः) अस्थिवत् सुदृढाभिः सात्त्विकवृत्तिभिः। अस्थिभिः इति प्राप्ते छन्दस्यपि दृश्यते। अ० ७।१।७६ इति इकारस्य अनङादेशः। (नवतीः नव३) नवोत्तरां नवतिं एकोनशतमित्यर्थः। (वृत्राणि) आवरकान् निशाचरान् (जघान) हतवान् हन्ति वा। नवनवतिर्निशाचरास्तावत्—दशेन्द्रियाणि, दश प्राणाः, अष्टौ चक्राणि, अन्तःकरणचतुष्टयम् शरीरं चेति त्रयंस्त्रिंशत्साधनैः कृतानि, क्रियमाणानि करिष्यमाणानि च भूतवर्त्तमानभविष्यत्कालिकानि पापानि, तानि इन्द्रो जीवात्मा परमात्मा च सावधानस्य मनसः सात्त्विकवृत्तिभिर्हन्ति ॥५॥

भावार्थभाषाः -

पूर्वतनयोर्द्वयोर्मन्त्रयोर्निशायास्तन्निराकरणार्थम् उषसः प्रादुर्भावस्य च क्रमेण वर्णनं कृतम्। अस्मिन् मन्त्रे निशासु जायमानानां पापरूपाणां निशाचराणां ध्वंसो वर्ण्यते—इन्द्रो दधीचोऽस्थिभिस्तान् हन्तीति। अयमिन्द्रो नाम मनुष्यदेहे विद्यमानो जीवात्मा हृदये स्थितः परमात्मा च। दध्यङ् च मनः। तस्य मनसः सात्त्विकवृत्तिरूपैरस्थिभिस्ते निशाचराः हन्यन्ते ॥५॥ एतन्मन्त्रस्य व्याख्याने विवरणकृता माधवेनेत्थमितिहासः प्रादर्शि—“अत्रेतिहासमाचक्षते। कालकञ्जा नाम असुराः। तैरसुरैर्बाध्यमाना देवा ब्रह्माणमुपगम्योक्तवन्तः। भगवन् कालकञ्जैरसुरैर्बाध्यामहे। तेषां मारणोपायं विधत्स्वेति। तच्छ्रुत्वा स तानुवाच दधीचिर्नाम ऋषिः। तमुपगम्य ब्रूत। स मारणोपायं विधास्यतीति। ते तच्छ्रुत्वा तथेत्यङ्गीकृत्य तं दधीचिमुपगम्य उक्तवन्तः—भगवन्नस्मदीयान्यस्त्राणि शुक्रस्तेषाम् असुराणाम् पुरोधा अपहरति, तानि रक्षस्व। ततः स ऋषिस्तानुवाच—मम मुखे प्रक्षिपध्वम्। तत इन्द्रादिभिर्दैवैः समरुद्गणैस्तस्य मुख प्रक्षिप्तानि। पुनः कालेन देवासुरसंग्रामे पर्युपस्थिते एत्य देवा ऊचुः—भगवन् तान्यस्त्राणि प्रयच्छस्वास्माकम्। ततस्तेनोक्तम्—तानि मे जीर्णानि। न तानि पुनः प्राप्तुं शक्यानि। ततः प्रजापतिमुखा देवा ऊचुः—भगवन् ! प्राणत्यागं कुरुष्वेति। तत्छ्रुत्वा पुनः कृतश्च तेन प्राणत्यागः। तस्य दधीचः स्वभूतैरस्थिभिरिन्द्रो वृत्राणि जघान इति।” सायणस्तु ब्रूते—अत्र शाट्यायनिन इतिहासमाचक्षते। आथर्वणस्य दधीचो जीवतो दर्शनेन असुरा पराबभूवुः। अथ तस्मिन् स्वर्गते असुरैः पूर्णा पृथिव्यभवत्। अथेन्द्रस्तैरसुरैः सह योद्धुमशक्नुवंस्तमृषिमन्विच्छन् स्वर्गं गत इति शुश्राव। अथ पप्रच्छ तत्रत्यान् इह किमस्य किञ्चित् परिशिष्टमङ्गमस्ति ? इति। तस्मा अवोचन्—अस्त्येतद् आश्वं शीर्षं, येन शिरसा अश्विभ्यां मधुविद्यां प्राब्रवीत्, तत्तु न विद्मः तद्यत्राभवदिति। पुनरिन्द्रोऽब्रवीत्—तदन्विच्छतेति। तद् वा अन्वेषिषुः। तच्छर्यणावत्यनुविद्य आजह्रुः। शर्यणावद्ध वै नाम कुरुक्षेत्रस्य जघनार्द्धे सरः स्यन्दते। तस्य शिरसोऽस्थिभिरिन्द्रोऽसुरान् जघानेति। केषाञ्चिन्नूतनानां पात्राणां कल्पनापुरस्सरं पुराण-महाभारतादिष्वपि किञ्चिद्भेदेनैवंविधाः कथा वर्णिताः सन्ति। सर्वा एताः कथा इमं मन्त्रमुपजीव्यैव रचिताः। तास्तु न वास्तविक्यः, प्रत्युतालङ्कारिक्य एव विज्ञेयाः। आध्यात्मिकाधिदैविकाधिभौतिकेषु क्षेत्रेषु सर्वत्रैव देवासुरसङ्ग्रामः प्रवर्तते। मनुष्यस्य मनसि दिव्यप्रवृत्तीनामासुरप्रवृत्तीनां च संग्राम इत्याध्यात्मम्, यथास्मत्कृते मन्त्रव्याख्याने स्पष्टम्। इन्द्रः परमेश्वरः दधीचः सूर्यस्य अस्थिभिः अस्थिसदृशैः किरणैः मेघान् रोगादींश्च हन्तीत्यधिदैवम्। इन्द्रो राजा दधीचः सेनापतेः अस्थिभिः अस्थिवत् सुदृढैः शस्त्रास्त्रैः शत्रून् हन्तीत्यधिभूतम्। एवमुच्चावचैरभिप्रायैर्ऋषीणां मन्त्रदृष्टयो भवन्तीति बोध्यम्। वेदे दध्यङ्नाम्नः कस्यचिदैतिहासिकस्य मुनिविशेषस्य गाथा तु न संभवति, वेदस्य सर्वेभ्योऽपि मुनिभ्यः पूर्वमेव विद्यमानत्वात्, पूर्ववर्तिनि च वेदे परिवर्तिनामितिहासस्यासंभवाच्च। दयानन्दर्षिणा ऋ० १।८४।१३ भाष्येऽस्य मन्त्रस्य व्याख्याने सूर्यदृष्टान्तेन सेनापतिकृत्यं वर्णितम्। एष च मन्त्रस्य तत्कृतो भावार्थः—“अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः स एव सेनापतिः कार्यो यः सूर्यवच्छत्रूणां हन्ता स्वसेनारक्षकोऽस्तीति वेद्यम्” इति ॥

टिप्पणी: १. ऋ० १।८४।१३, अथ० २०।४१।१, साम० ९१३। २. अप्रतिस्खलितः—इति वि०। ष्कुञ् आप्रवणे। अप्रत्यागतः केनापि—इति भ०। परैरप्रतिशब्दितः प्रतिकूलशब्दरहितः—इति सा०। ३. नवतीर्नव नवसंख्याका नवतीः दशोत्तराणि अष्टौ शतानि (९०*९) इति विवरणकृतो भरतस्वामिनः सायणस्य चाशयः। तानि च सायणेनेत्थं परिगणितानि—लोकत्रयवर्तिनो देवान् जेतुम् आदावासुरी माया त्रिधा सम्पद्यते। त्रिविधा सा अतीतानागतवर्तमानकालभेदेन तत्कालवर्तिनो जेतुं पुनरपि प्रत्येकं त्रिगुणिता भवति, एवं नव सम्पद्यन्ते। पुनरपि उत्साहादिशक्तित्रयरूपेण त्रैगुण्ये सति सप्तविंशतिः सम्पद्यन्ते। पुनः सात्त्विकादिगुणत्रयभेदेन त्रैगुण्ये सति एकोत्तरा अशीतिः सम्पद्यते। एवं चतुर्भिस्त्रिकैर्गुणिताया मायाया दशसु दिक्षु प्रत्येकमवस्थाने सति नव नवतयः सम्पद्यन्ते इति।