वांछित मन्त्र चुनें
आर्चिक को चुनें

ब꣡ट् सू꣢र्य꣣ श्र꣡व꣢सा म꣣हा꣡ꣳ अ꣢सि स꣣त्रा꣡ दे꣢व म꣣हा꣡ꣳ अ꣢सि । म꣣ह्ना꣢ दे꣣वा꣡ना꣢मसु꣣꣬र्यः꣢꣯ पु꣣रो꣡हि꣢तो वि꣣भु꣢꣫ ज्योति꣣र꣡दा꣢भ्यम् ॥१७८९॥

(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)
स्वर-रहित-मन्त्र

बट् सूर्य श्रवसा महाꣳ असि सत्रा देव महाꣳ असि । मह्ना देवानामसुर्यः पुरोहितो विभु ज्योतिरदाभ्यम् ॥१७८९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ब꣢ट् । सू꣣र्य । श्र꣡व꣢꣯सा । म꣣हा꣢न् । अ꣣सि । सत्रा꣢ । दे꣣व । महा꣢न् । अ꣣सि । मह्ना꣢ । दे꣣वा꣡ना꣢म् । अ꣣सुर्यः꣢ । अ꣣ । सुर्यः꣢ । पु꣣रो꣡हि꣢तः । पु꣣रः꣢ । हि꣣तः । विभु꣢ । वि꣣ । भु꣢ । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । अ꣡दा꣢꣯भ्यम् । अ । दा꣣भ्यम् ॥१७८९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1789 | (कौथोम) 9 » 1 » 9 » 2 | (रानायाणीय) 20 » 2 » 4 » 2


बार पढ़ा गया

हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर उसी विषय को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(बट्) सचमुच हे (सूर्य) सूर्य ! तू (श्रवसा) यश से (महान् असि) महान् है। (सत्रा) सचमुच ही, हे (देव) ज्योतिर्मय ! तू (महान् असि) महान् है। (असुर्यः) प्राणियों का हितकर्त्ता तू (मह्ना) महिमा से (देवानाम्) भूमण्डल, सोम, मङ्गल, बुध आदि प्रकाशनीयों के (पुरोहितः) सामने निहित है, जिससे उन्हें प्रकाशित कर सके। तू (विभु) व्यापक, (अदाभ्यम्) हिंसा न किये जा सकने योग्य (ज्योतिः) ज्योति है—यह सूर्य की अन्योक्ति से जीवात्मा को कहा गया है ॥२॥ यहाँ भी अन्योक्ति अलङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जीवात्मा भी सूर्य के समान यशस्वी, गुणों में महान्, अग्रणी और ज्योतिष्मान् है, इसलिए वह अपने गुणों को पहचान कर महान् कर्मों को करता हुआ अभ्युदय और निःश्रेयस को प्राप्त करे ॥२॥ इस खण्ड में अध्यात्मयोग, मृत्यु की अवश्यंभाविता, परमात्मा, ब्रह्मानन्द-रस, आत्मोद्बोधन इन विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ संगति है ॥ बीसवें अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥

बार पढ़ा गया

संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(बट्) सत्यम्, हे (सूर्य) प्रभाकर ! त्वम् (श्रवसा) यशसा (महान् असि) महिमवान् वर्तसे। (सत्रा) सत्यमेव, हे (देव) ज्योतिर्मय ! त्वम् (महान् असि) महान् विद्यसे। (असुर्यः) असुराः प्राणवन्तः, तेभ्यो हितः त्वम्। [असुशब्दान्मत्वर्थीयो रः। ततोऽसुरप्रातिपदिकाद् हितार्थे यत् प्रत्ययः।] (मह्ना) महिम्ना (देवानाम्) भूमण्डलसोममङ्गलबुधादीनां प्रकाश्यानाम् (पुरोहितः) प्रकाशप्रदानाय सम्मुखं निहितो विद्यसे। त्वम् (विभु) व्यापकम् (अदाभ्यम्) हिंसितुमशक्यम् (ज्योतिः) तेजः असि इति सूर्यस्यान्योक्त्या जीवात्मानमाह ॥२॥२ अत्राप्यन्योक्तिरलङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जीवात्माऽपि सूर्यवद् यशस्वी गुणैर्महान् अग्रणीर्ज्योतिष्मांश्चास्तीति स स्वकीयान् गुणान् परिचित्य महान्ति कार्याणि कुर्वन्नभ्युदयं निःश्रेयसं च विन्दतु ॥२॥ अस्मिन् खण्डेऽध्यात्मयोगा मृत्योर्ध्रुवत्वं परमात्मा ब्रह्मानन्दरस आत्मोद्बोधनम् इत्येतेषां विषयाणां वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥