ब꣢ण्म꣣हा꣡ꣳ अ꣢सि सूर्य꣣ ब꣡डा꣢दित्य म꣣हा꣡ꣳ अ꣢सि । म꣣ह꣡स्ते꣢ स꣣तो꣡ म꣢हि꣣मा꣡ प꣢निष्टम म꣣ह्ना꣡ दे꣢व म꣣हा꣡ꣳ अ꣢सि ॥१७८८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)बण्महाꣳ असि सूर्य बडादित्य महाꣳ असि । महस्ते सतो महिमा पनिष्टम मह्ना देव महाꣳ असि ॥१७८८॥
ब꣢ट् । म꣣हा꣢न् । अ꣣सि । सूर्य । ब꣢ट् । आ꣣दित्य । आ । दित्य । म꣢हान् । अ꣣सि । महः꣢ । ते꣣ । सतः꣢ । म꣣हिमा꣢ । प꣣निष्टम । मह्ना꣢ । दे꣣व । महा꣢न् । अ꣣सि ॥१७८८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में २७६ क्रमाङ्क पर परमात्मा, राजा और आचार्य के विषय में व्याख्यात की गयी थी। यहाँ सूर्य के दृष्टान्त से जीवात्मा को उद्बोधन दे रहे हैं।
(बट्) सचमुच, हे (सूर्य) सूर्य ! तू (महान् असि) विशाल है, (बट्) सचमुच हे (आदित्य) आदित्य ! तू (महान् असि) महान् है। हे (पनिष्टम) सौरमण्डल में सबसे अधिक स्तुति योग्य ! (महः सतः ते) तुझ तेजस्वी की (महिमा) महिमा अद्भुत है। हे (देव) प्रकाशक ! तू (मह्ना) महिमा से (महान् असि) महान् है—यह सूर्य की अन्योक्ति से जीवात्मा को कहा गया है ॥१॥ यहाँ अन्योक्ति अलङ्कार है ॥१॥
सूर्य परिणाम में महान् है, क्योंकि उसकी परिधि आठ लाख कोस की लम्बाई से भी अधिक है; कर्म से महान् है, क्योंकि सब ग्रहोपग्रहों का प्रकाशक और जीवनाधार है; गुरुत्वाकर्षण में महान् है, क्योंकि सब आकाशीय पिण्डों को अपने आकषर्ण से धारण किये हुए है; ज्योति में महान् है, क्योंकि ज्योति का पुञ्ज ही है। इसी प्रकार मनुष्य के आत्मा में भी बहुत बड़ी शक्ति निहित है, उसे पहचानकर वह महान् कर्मों को करे, यह उसे उद्बोधन दिया गया है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २७६ क्रमाङ्के परमात्मनृपत्याचार्यविषये व्याख्याता। अत्रादित्यदृष्टान्तेन जीवात्मा प्रोद्बोध्यते।
(बट्) सत्यम्, हे (सूर्य) भास्कर ! त्वम् (महान् असि) विशालोऽसि, (बट्) सत्यम्, हे (आदित्य) दिवाकर ! त्वम् (महान् असि) महत्त्वोपेतोऽसि। हे (पनिष्टम) सौरमण्डले स्तुत्यतम ! [पण व्यवहारे स्तुतौ च। पन्यते स्तूयते यः स पनिः, अतिशयेन पनिः पनिष्टमः, मध्ये सुडागमश्छान्दसः, तस्य षत्वं च।] (महः सतः ते) तेजस्विनः सतः तव (महिमा) गरिमा, अद्भुतोऽस्ति। हे (देव) प्रकाशक ! त्वम् (मह्ना) महिम्ना (महान् असि) गौरवपूर्णोऽसि—इति सूर्यस्य अन्योक्त्या जीवात्मानमाह ॥१॥२ अत्रान्योक्तिरलङ्कारः ॥१॥
सूर्यः परिमाणेन महान् तत्परिधेरष्टलक्षक्रोशद्राघिम्नोऽप्यधिकत्वात्, कर्मभिर्महान् समस्तग्रहोपग्रहाणां प्रकाशकत्वाज्जीवनाधारत्वाच्च, गुरुत्वाकर्षणेन महान् सर्वेषां खगोलपिण्डानामाकर्षणेन धारकत्वात्, ज्योतिषा च महान् ज्योतिष्पुञ्जत्वात्। तथैव मनुष्यस्यात्मन्यपि महती शक्तिर्निहितास्ति, तां परिचित्य स महान्ति कर्माणि कुर्यादित्युद्बोधनम् ॥१॥