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उ꣣तो꣡ न्व꣢स्य꣣ जो꣢ष꣣मा꣡ इन्द्रः꣢꣯ सु꣣त꣢स्य꣣ गो꣡म꣢तः । प्रा꣣त꣡र्होते꣢꣯व मत्सति ॥१७८७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

उतो न्वस्य जोषमा इन्द्रः सुतस्य गोमतः । प्रातर्होतेव मत्सति ॥१७८७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ꣣त꣢ । उ꣣ । नु꣢ । अ꣣स्य । जो꣡ष꣢꣯म् । आ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । सु꣣त꣡स्य꣢ । गो꣡म꣢꣯तः । प्रा꣣तः꣢ । हो꣡ता꣢꣯ । इ꣡व । मत्सति ॥१७८७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1787 | (कौथोम) 9 » 1 » 8 » 3 | (रानायाणीय) 20 » 2 » 3 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर ब्रह्मानन्द का विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(उत उ नु) और (प्रातः) प्रातःकाल (सुतस्य) ब्रह्मयज्ञ द्वारा परिस्रुत, (गोमतः) प्रकाशयुक्त (अस्य) इस ब्रह्मानन्द-रूप सोमरस के (जोषम्) सेवन की (इन्द्रः) योगी मनुष्य (मत्सति) स्तुति करता है, (होता इव) जैसे होम करनेवाला मनुष्य अग्नि की स्तुति करता है ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

जैसे प्रातःकाल देवयज्ञ में अग्नि में होम करनेवाला पुरुष अग्नि की स्तुति करता है, वैसे ही योगी ब्रह्मयज्ञ में परमात्मा की सङ्गति से प्राप्त आनन्द की स्तुति करता है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनर्ब्रह्मानन्दविषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(उत उ नु) अपि च (प्रातः) प्रभातवेलायाम् (सुतस्य) ब्रह्मयज्ञेन अभिषुतस्य (गोमतः) प्रकाशयुक्तस्य (अस्य) ब्रह्मानन्दरूपस्य सोमरसस्य (जोषम्) सेवनम्। [जुषी प्रीतिसेवनयोः, तुदादिः, घञ् प्रत्ययः।] (इन्द्रः) योगी जनः (मत्सति) स्तौति। [मदि स्तुत्यादौ, लेटि सिब्विकरणे रूपम्।] (होता इव) होमकर्ता यथा यज्ञाग्निं स्तौति तथा ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥

भावार्थभाषाः -

यथा प्रातर्देवयज्ञेऽग्नौ होमकर्ता पुरुषोऽग्निं स्तौति तथा योगी ब्रह्मयज्ञे परमात्मसङ्गेन प्राप्तमानन्दं स्तौति ॥३॥