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अ꣢ग्ने꣣ वि꣡व꣢स्वदु꣣ष꣡स꣢श्चि꣣त्र꣡ꣳ राधो꣢꣯ अमर्त्य । आ꣢ दा꣣शु꣡षे꣢ जातवेदो वहा꣣ त्व꣢म꣣द्या꣢ दे꣣वा꣡ꣳ उ꣢ष꣣र्बु꣡धः꣢ ॥१७८०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अग्ने विवस्वदुषसश्चित्रꣳ राधो अमर्त्य । आ दाशुषे जातवेदो वहा त्वमद्या देवाꣳ उषर्बुधः ॥१७८०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡ग्ने꣢꣯ । वि꣡व꣢꣯स्वत् । वि । व꣣स्वत् । उष꣡सः꣢ । चि꣣त्र꣢म् । रा꣡धः꣢꣯ । अ꣣मर्त्य । अ । मर्त्य । आ꣢ । दा꣣शु꣡षे । जा꣣तवेदः । जात । वेदः । वह । त्व꣢म् । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । दे꣣वा꣢न् । उ꣣ष꣡र्बु꣢धः । उ꣣षः । बु꣡धः꣢꣯ ॥१७८०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1780 | (कौथोम) 9 » 1 » 6 » 1 | (रानायाणीय) 20 » 2 » 1 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वाचिक में ४० क्रमाङ्क पर हो चुकी है। यहाँ योग का विषय दर्शाया जा रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अमर्त्य) अमर कीर्तिवाले, (जातवेदः) योग का ज्ञान देनेवाले (अग्ने) योगिराज ! (त्वम्) आप (अद्य) आज (दाशुषे) आत्मसमर्पणकर्ता मेरे लिए (विवस्वत्) तामस वृत्तियों के अन्धकार को दूर करनेवाले, (उषसः) योगमार्ग में उदित हुई ज्योतिष्मती प्रज्ञा के (चित्रम्) अद्भुत (राधः) ऐश्वर्य को और (उषर्बुधः देवान्) उषाकाल में जागनेवाले दिव्य गुणों को (आ वह) प्राप्त कराओ ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मा की कृपा से, जीवात्मा के निरन्तर किये जानेवाले प्रयत्न से और योग सिखानेवाले गुरु की शिक्षा से उत्तरोत्तर नवीन-नवीन उपलब्धियाँ योगाभ्यासी को होती हैं और विवेकख्याति द्वारा मोक्ष भी प्राप्त हो जाता है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४० क्रमाङ्के व्याख्यातपूर्वा। अत्र योगविषयो निरूप्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अमर्त्य) अमरकीर्ते (जातवेदः) योगज्ञानप्रद (अग्ने) योगिराज ! (त्वम् अद्य) अस्मिन् दिने (दाशुषे) आत्मसमर्पणकारिणे मह्यम् (विवस्वत्) तामसवृत्तीनां विवासयितृ, (उषसः) योगमार्गे उदिताया ज्योतिष्मत्याः प्रज्ञायाः (चित्रम्) अद्भुतम् (राधः) ऐश्वर्यम्, (उषर्बुधः देवान्) उषसि ज्योतिष्मत्यां प्रज्ञायां ये बुध्यन्ते जाग्रति तान् दिव्यगुणांश्च (आवह) प्रापय ॥१॥२

भावार्थभाषाः -

परमात्मकृपया जीवात्मनः सततप्रयासेन योगगुरोः शिक्षया चोत्तरोत्तरं नवा नवा उपलब्धयो योगाभ्यासिनो जायन्ते विवेकख्यात्या कैवल्यं चाप्यधिगम्यते ॥१॥