ए꣣षो꣢ उ꣣षा꣡ अपू꣢꣯र्व्या꣣꣬ व्यु꣢꣯च्छति प्रि꣣या꣢ दि꣣वः꣢ । स्तु꣣षे꣡ वा꣢मश्विना बृ꣣ह꣢त् ॥१७८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)एषो उषा अपूर्व्या व्युच्छति प्रिया दिवः । स्तुषे वामश्विना बृहत् ॥१७८॥
ए꣣षा꣢ । उ꣣ । उषाः꣢ । अ꣡पू꣢꣯र्व्या । अ । पू꣣र्व्या । वि꣢ । उ꣣च्छति । प्रिया꣢ । दि꣣वः꣢ । स्तु꣣षे꣢ । वा꣣म् । अश्विना । बृह꣢त् ॥१७८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में रात्रि के हट जाने पर छिटकी हुई उषा का वर्णन किया गया है।
(एषा उ) यह (अपूर्व्या) अपूर्व, (प्रिया) प्रिय (उषाः) उषा के समान प्रकाशमयी धर्म, विद्या आदि की ज्योति (दिवः) द्युतिमान् (इन्द्र) अर्थात् परमेश्वर, आचार्य या राजा के पास से उत्पन्न होकर (व्युच्छति) अधर्म, अज्ञान आदि रूप अन्धकार को विदीर्ण कर छिटक रही है। (अश्विना) हे प्राकृतिक उषा से प्रकाशित द्यावापृथिवी के समान धर्म, ज्ञान आदि से प्रकाशित स्त्री-पुरुषो ! मैं (वाम्) तुम्हारी (बृहत्) बहुत अधिक (स्तुषे) स्तुति करता हूँ ॥४॥
पहले मन्त्र में रात्रि को दूर करने की प्रार्थना की गयी थी। सौभाग्य से उस हृदय-व्यापिनी राष्ट्रव्यापिनी और विश्वव्यापिनी अधर्मरूपिणी या अविद्यारूपिणी रात्रि को हटाकर दिव्य प्रकाशमयी धर्मरूपिणी या विद्यारूपिणी उषा प्रकट हो गयी है। जैसे प्राकृतिक उषा के प्रादुर्भाव से द्यावापृथिवी प्रकाश से भर जाते हैं, वैसे ही इस, विद्या, सच्चरित्रता, आध्यात्मिकता आदि की ज्योति से परिपूर्ण दिव्य उषा के प्रकाश से स्त्री-पुरुष-रूप द्यावापृथिवी दिव्य दीप्ति से देदीप्यमान हो उठे हैं ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ निशाया अपगमे उद्भासिताम् उषसं वर्णयति।
(एषा उ) इयं किल (अपूर्व्या२) न पूर्वं कदाचिदनुभूता, अनुपमा। पूर्वस्मिन् काले भवा पूर्व्या, न पूर्व्या अपूर्व्या, भवार्थे यत्। (प्रिया) प्रीतिकरी (उषाः) उषर्वत् प्रकाशमयी धर्मविद्यादिद्युतिः (दिवः) द्योतनात्मकात् इन्द्रात् परमेश्वराद् आचार्याद् नृपतेर्वा, तेषां सकाशादित्यर्थः (वि उच्छति) अधर्माज्ञानादिरूपं तमो विदार्य प्रस्फुरति। (अश्विना) हे अश्विनौ, द्यावापृथिवीवद् उषसः प्रकाशेन व्याप्तौ स्त्रीपुरुषौ ! अहम् (वाम्) युवाम् (बृहत्) प्रभूतम् (स्तुषे) स्तौमि, अभिनन्दामि। ष्टुञ् स्तुतौ धातोर्लेटि उत्तमैकवचने रूपम्। सिब्बहुलं लेटि। अ० ३।१।३४ इति सिबागमः ॥४॥३
पूर्वस्मिन् मन्त्रे निशाया अपसारणं प्रार्थितम्। सौभाग्येन तां हृदयव्यापिनीं राष्ट्रव्यापिनीं विश्वव्यापिनीम् अधर्मरूपामविद्यारूपां वा निशां निरस्य दिव्यप्रकाशमयी धर्मरूपा विद्यारूपा वा उषाः प्रादुर्भूतास्ति। यथा प्राकृतिक्या उषसः प्रादुर्भावेन द्यावापृथिव्यौ प्रकाशपरिपूर्णे भवतस्तथैवास्या धर्मविद्यासच्चारित्र्याध्यात्मिकत्वादिज्योतिर्भरिताया दिव्याया उषसः प्रकाशेन स्त्रीपुरुषरूपे द्यावापृथिव्यौ दिव्यदीप्त्या देदीप्यमाने संजाते स्तः ॥४॥