अ꣢ग्ने꣣ त꣢म꣣द्या꣢श्वं꣣ न꣢꣫ स्तोमैः꣣ क्र꣢तुं꣣ न꣢ भ꣣द्र꣡ꣳ हृ꣢दि꣣स्पृ꣡श꣢म् । ऋ꣣ध्या꣡मा꣢ त꣣ ओ꣡हैः꣢ ॥१७७७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अग्ने तमद्याश्वं न स्तोमैः क्रतुं न भद्रꣳ हृदिस्पृशम् । ऋध्यामा त ओहैः ॥१७७७॥
अ꣡ग्ने꣢꣯ । तम् । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । अ꣡श्व꣢꣯म् । न । स्तो꣡मैः꣢꣯ । क्र꣡तु꣢꣯म् । न । भ꣣द्र꣢म् । हृ꣣दिस्पृ꣡श꣢म् । हृ꣣दि । स्पृ꣣श꣢म् । ऋ꣣ध्या꣡म꣢ । ते । ओ꣡हैः꣢꣯ ॥१७७७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वाचिक में ४३४ क्रमाङ्क पर परमेश्वर की अर्चना के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ जीवात्मा का विषय कहा जा रहा है।
हे (अग्ने) जीवननायक परमेश्वर ! (अद्य) आज (अश्वं न) व्यापक सूर्य के समान प्रकाशमान और (क्रतुं न) यज्ञ-कर्म के समान (भद्रम्) भद्र, (हदिस्पृशम्) हृदय में निवास करनेवाले (तम्) उस शरीरवर्ती अपने अन्तरात्मा को (ते ओहैः) तेरे द्वारा प्रेरित (स्तोमैः) वेदमन्त्रों से, हम (ऋध्याम) बढ़ायें, उद्बोधन दें ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥
जो तेजस्वी और कर्मण्य जीवात्मा सबके ह्रदय में स्थित है,उसे उद्बोधक वेदमन्त्रों से अधिकाधिक उद्बोधन देना चाहिए तथा गुणगरिमा से बढ़ाना चाहिए ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४३४ क्रमाङ्के परमेश्वरार्चनविषये व्याख्याता। अत्र जीवात्मविषय उच्यते।
हे (अग्ने) जीवननायक परमेश ! (अद्य) अस्मिन् दिने (अश्वं न) व्यापकं सूर्यमिव प्रकाशमानम्, (क्रतुं न) यज्ञ-कर्म इव च (भद्रम्) कल्याणकरम्, (हृदिस्पृशम्) हृदयनिवासिनम् (तम्) शरीरवर्तिनं स्वान्तरात्मानम् (ते ओहैः) त्वया प्रेरितैः (स्तोमैः) वेदमन्त्रैः (ऋध्याम) वर्धयेम, उद्बोधयेम। [ऋधु वृद्धौ, दिवादिः स्वादिश्च] ॥१॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥
यस्तेजस्वी कर्मण्यश्च जीवात्मा सर्वेषां हृदि सन्निविष्टः स उद्बोधकैर्वेदमन्त्रैरधिकाधिकमुद्बोधनीयो गुणगरिम्णा वर्धनीयश्च ॥१॥