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अ꣣य꣢꣫ꣳ स होता꣣ यो꣢ द्वि꣣ज꣢न्मा꣣ वि꣡श्वा꣢ द꣣धे꣡ वार्या꣢꣯णि श्रव꣣स्या꣢ । म꣢र्तो꣣ यो꣡ अ꣢स्मै सु꣣तु꣡को꣢ द꣣दा꣡श꣢ ॥१७७६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अयꣳ स होता यो द्विजन्मा विश्वा दधे वार्याणि श्रवस्या । मर्तो यो अस्मै सुतुको ददाश ॥१७७६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अय꣢म् । सः । हो꣡ता꣢ । यः । द्वि꣣ज꣡न्मा꣢ । द्वि꣣ । ज꣡न्मा꣢꣯ । वि꣡श्वा꣢꣯ । द꣣धे꣢ । वा꣡र्या꣢꣯णि । श्र꣣वस्या꣢ । म꣡र्तः꣢꣯ । यः । अ꣣स्मै । सुतु꣡कः꣢ । सु꣣ । तु꣡कः꣢꣯ । द꣣दा꣡श꣢ ॥१७७६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1776 | (कौथोम) 9 » 1 » 4 » 3 | (रानायाणीय) 20 » 1 » 4 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर द्विजन्मा का विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यः द्विजन्मा) जो माता-पिता से एक और आचार्य से दूसरा इस प्रकार दो जन्म प्राप्त करके द्विज हो जाता है, (सः अयम्) वह यह (होता) सबको विद्या, सुख आदि देनेवाला और होम करनेवाला होता है। साथ ही (विश्वा) सब (श्रवस्या) यश के योग्य (वार्याणि) वरणीय यम, नियम आदि कर्मों को (दधे) अपने जीवन में धारण कर लेता है। (यः) और जो (मर्तः) मनुष्य अर्थात् आचार्य (अस्मै) इसे (ददाश) विद्या देता है, वह उस सुशिक्षित विद्वान् द्विज से (सुतुकः) सुपुत्रवान् हो जाता है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

आचार्य से विद्या पढ़कर, स्नातक हो, द्विज बनकर ऐसा आचरण करे, जिससे उसका यश सब जगह फैले। ऐसे गुणवान् द्विज से सचमुच आचार्य भी स्वयं को सुपुत्रवान् मानता है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि द्विजन्मनो विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यः द्विजन्मा) यो मातापितृभ्यामेकम् आचार्यसकाशाद् द्वितीयमिति द्वे जन्मनी प्राप्य द्विजो जायते (सः अयम्) स एष (होता) सर्वेभ्यो विद्यासुखादीनां दाता, होमकर्ता च जायते। अपि च (विश्वा) विश्वानि (श्रवस्या) श्रवस्यानि यशोयोग्यानि (वार्याणि) वरणीयानि यमनियमादीनि कर्माणि (दधे) स्वजीवने धारयति। (यः) यश्च (मर्तः) मनुष्यः,आचार्य इत्यर्थः (अस्मै) एतस्मै (ददाश) विद्यां प्रयच्छति, स तेन सुशिक्षितेन विदुषा द्विजेन (सुतुकः) सुपुत्रो जायते ॥३॥२

भावार्थभाषाः -

आचार्याद् विद्यामधीत्य स्नातकः सन् द्विजो भूत्वा तथाऽऽचरेद् येन तस्य यशः सर्वत्र प्रसरेत्। एतादृशेन गुणिना द्विजेन सत्यमाचार्योऽपि स्वात्मानं सुपुत्रं मन्यते ॥३॥