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अ꣣भि꣢ द्वि꣣ज꣢न्मा꣣ त्री꣡ रो꣢च꣣ना꣢नि꣣ वि꣢श्वा꣣ र꣡जा꣢ꣳसि शुशुचा꣣नो꣡ अ꣢स्थात् । हो꣢ता꣣ य꣡जि꣢ष्ठो अ꣣पा꣢ꣳ स꣣ध꣡स्थे꣢ ॥१७७५॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अभि द्विजन्मा त्री रोचनानि विश्वा रजाꣳसि शुशुचानो अस्थात् । होता यजिष्ठो अपाꣳ सधस्थे ॥१७७५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अभि꣢ । द्वि꣣ज꣡न्मा꣢ । द्वि꣣ । ज꣡न्मा꣢꣯ । त्रि । रो꣣चना꣡नि꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯ । र꣡जा꣢꣯ꣳसि । शु꣣शुचानः꣢ । अ꣣स्थात् । हो꣡ता꣢꣯ । य꣡जि꣢꣯ष्ठः । अ꣣पा꣢म् । स꣣ध꣡स्थे꣢ । स꣣ध꣢ । स्थे꣣ ॥१७७५॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1775 | (कौथोम) 9 » 1 » 4 » 2 | (रानायाणीय) 20 » 1 » 4 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में द्विजन्मा का विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(द्विजन्मा) एक जन्म माता-पिता से और दूसरा जन्म आचार्य तथा विद्या से, इस प्रकार जिसने दो जन्म प्राप्त किये हैं, वह (त्री रोचनानि) दैहिक, आत्मिक और समाजिक तीन तेजों को (अभि) प्राप्त करके (विश्वा रजांसि) सब रजोगुणों को (शुशुचानः) सत्त्व गुण से प्रकाशित करता हुआ, (होता) होम करनेवाला, (अपां सधस्थे) नदियों के सङ्गम पर (यजिष्ठः) अतिशय परमेश्वर-पूजा रूप यज्ञ को करनेवाला होकर (अस्थात्) निवास करता है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्य माता-पिता से जन्म पाकर यथासमय गुरुकुल में प्रविष्ट होकर, विद्याएँ पढ़कर, तेज प्राप्त करके, आचार्य के गर्भ से दूसरा जन्म पाकर, समावर्तन संस्कार करा कर, स्नातक बनकर, घर जाकर ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ आदि शुभकर्मों को करता हुआ और दूसरे मनुष्यों को उपदेश द्वारा धार्मिक बनाता हुआ जीवन व्यतीत करे ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ द्विजन्मनो विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(द्विजन्मा) एकं जन्म मातापितृभ्यां, द्वितीयं जन्माचार्यस्य विद्यायाश्च सकाशादिति द्वे जन्मनी यस्य सः (त्री रोचनानि) त्रीणि दैहिकात्मिकसामाजिकतेजांसि (अभि) अभिप्राप्य (विश्वा रजांसि) सर्वान् रजोगुणान् (शुशुचानः) सत्त्वगुणेन प्रकाशयन् (होता) होमकर्ता, (अपां सधस्थे) नदीनां सङ्गमे (यजिष्ठः) अतिशयेन यष्टा परमेश्वरपूजकः सन् (अस्थात्) तिष्ठति, निवसति ॥२॥२

भावार्थभाषाः -

मनुष्यो मातापितृभ्यां जन्म प्राप्य यथासमयं गुरुकुलं प्रविष्टो विद्या अधीत्य तेजांसि प्राप्याचार्यगर्भाद् द्वितीयं जन्माधिगम्य कृतसमावर्तनसंस्कारः स्नातकः सन् गृहं गत्वा ब्रह्मयज्ञदेवयज्ञादीनि शुभकर्माण्याचरन्नितरान् मनुष्यांश्चोपदशेन धार्मिकान् कुर्वन् जीवनं यापयेत् ॥२॥