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आ꣢꣯ यः पुरं꣣ ना꣡र्मि꣢णी꣣म꣡दी꣢दे꣣द꣡त्यः꣢ क꣣वि꣡र्न꣢भ꣣न्यो꣢३ ना꣡र्वा꣢ । सू꣢रो꣣ न꣡ रु꣢रु꣣क्वा꣢ञ्छ꣣ता꣡त्मा꣢ ॥१७७४॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

आ यः पुरं नार्मिणीमदीदेदत्यः कविर्नभन्यो३ नार्वा । सूरो न रुरुक्वाञ्छतात्मा ॥१७७४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ꣢ । यः । पु꣡र꣢꣯म् । ना꣡र्मि꣢꣯णीम् । अ꣡दी꣢꣯देत् । अ꣡त्यः꣢꣯ । क꣣विः꣢ । न꣣भन्यः꣢ । न । अ꣡र्वा꣢꣯ । सू꣡रः꣢꣯ । न । रु꣣रुक्वा꣢न् । श꣣ता꣡त्मा꣢ । श꣣त꣢ । आ꣣त्मा ॥१७७४॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1774 | (कौथोम) 9 » 1 » 4 » 1 | (रानायाणीय) 20 » 1 » 4 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम मन्त्र में यह कहा गया है कि मनुष्य-जन्म को प्राप्त जीवात्मा कैसा हो।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यः) जो अग्नि अर्थात् नेता जीवात्मा (नार्मिणीम्) हास-विलास युक्त (पुरम्) देह-नगरी को (आ अदीदेत्) तेज से दीप्तिमान् करता है, वह (अत्यः) एक शरीर से दूसरे शरीर में जानेवाला अथवा मोक्ष को प्राप्त करनेवाला (कविः) दूरदर्शी प्रज्ञावाला, (नभन्यः न) आकाशवर्ती वायु के समान (अर्वा) दोषों का हिंसक और (सूरः न) सूर्य के समान (रुरुक्वान्) तेजस्वी तथा (शतात्मा) शरीर से शतायु होवे ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जीवात्मा पूर्वजन्म में किये हुए शुभ कर्मों के अनुसार मानव-देह प्राप्त करके बुद्धि के विवेक से कर्त्तव्य कर्मों को करता हुआ वायु के समान सब दोषों को विनष्ट करके सूर्य के समान तेजस्वी होता हुआ उत्कर्ष को प्राप्त करे ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अत प्राप्तमनुष्यजन्मा जीवात्मा कीदृशो भवेदित्याह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यः) यः अग्निः नेता जीवात्मा (नार्मिणीम्२) हासविलासयुक्ताम् (पुरम्) देहनगरीम् (आ अदीदेत्) तेजसा आदीपयति, सः (अत्यः) देहाद् देहान्तरं गन्ता यद्वा मोक्षं गन्ता। [अथ सातत्यगमने। अतति सततं गच्छतीति अत्यः।] (कविः) क्रान्तप्रज्ञः, (नभन्यः न) नभसि भवो वायुरिव (अर्वा) दोषाणां हिंसकः। [ऋणोति हिनस्ति दोषान् यः स अर्वा। ऋ हिंसायाम्, स्वादिः। औणादिको वनिप् प्रत्ययः।] (सूरः न) आदित्यः इव (रुरुक्वान्) दीप्तः। [रोचतेर्दीप्तिकर्मणो लिटः क्वसुः।] (शतात्मा) शरीरेण शतायुश्च भवेदिति शेषः ॥१॥३ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जीवात्मा पूर्वकृतशुभकर्मानुसारेण मानवदेहं प्राप्य बुद्धिविवेकेन कर्तव्यकर्माण्याचरन् वायुरिव सर्वान् दोषान् विनाश्य सूर्य इव रोचिष्णुः सन्नुत्कर्षं प्राप्नुयात् ॥१॥