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देवता: इन्द्रः ऋषि: प्रियमेध आङ्गिरसः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

तु꣡वि꣢शुष्म꣣ तु꣡वि꣢क्रतो꣣ श꣡ची꣢वो꣣ वि꣡श्व꣢या मते । आ꣡ प꣢प्राथ महित्व꣣ना꣢ ॥१७७२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

तुविशुष्म तुविक्रतो शचीवो विश्वया मते । आ पप्राथ महित्वना ॥१७७२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तु꣡वि꣢꣯शुष्म । तु꣡वि꣢꣯ । शु꣣ष्म । तु꣡वि꣢꣯क्रतो । तु꣡वि꣢꣯ । क्र꣣तो । श꣡ची꣢꣯वः । वि꣡श्व꣢꣯या । म꣣ते । आ꣢ । प꣣प्राथ । महित्वना꣢ ॥१७७२॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1772 | (कौथोम) 9 » 1 » 3 » 2 | (रानायाणीय) 20 » 1 » 3 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर वही विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (तुविशुष्म) बहुत बलवान्, (तुविक्रतो) बहुत प्रज्ञावाले वा बहुत-से यज्ञों को करनेवाले, (शचीवः) कर्मवान् (मते) मननशील परमेश्वर वा जीवात्मन् ! आप (विश्वया) बहुत प्रकार के (महित्वना) महत्त्वों से (आ पप्राथ) परिपूर्ण हो ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यद्यपि महत्त्व में परमेश्वर जीवात्मा से अधिक है, तो भी दोनों ही बलवान् बुद्धिमान्, मननशील और कर्मण्य हैं। जैसे परमेश्वर के बिना ब्रह्माण्ड की व्यवस्था नहीं चल सकती, वैसे ही जीवात्मा के बिना शरीर की व्यवस्था नहीं होती ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनस्तमेव विषयमाह

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (तुविशुष्म) बहुबल, (तुविक्रतो) बहुप्रज्ञ, बहुयज्ञ (शचीवः) कर्मवन्, (मते) मननशील परमेश जीवात्मन् च, त्वम् (विश्वया) बहुविधेन (महित्वना) महिम्ना (आ पप्राथ) परिपूर्णोऽसि। [शुष्ममिति बलनाम। निघं० २।९। शचीति कर्मनाम। निघं० २।१। विश्वया विश्वेन, अत्र ‘सुपां सुलुक्०’ अ० ७।१।३९ इत्यनेन विभक्तेर्यादेशः। आ पप्राथ, प्रा पूरणे, अदादिः। अत्राकर्मकः] ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यद्यपि महत्त्वेन परमेशो जीवात्मानमतिशेते तथाप्युभावपि बलवन्तौ, प्राज्ञौ, मन्तारौ, कर्मण्यौ च स्तः। यथा परमेश्वरं विना ब्रह्माण्डस्य व्यवस्था न भवितुं शक्नोति तथा जीवात्मानं विना शरीरव्यवस्था न जायते ॥२॥