त्वा꣡मिच्छ꣢꣯वसस्पते꣣ य꣢न्ति꣣ गि꣢रो꣣ न꣢ सं꣣य꣡तः꣢ ॥१७६९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)त्वामिच्छवसस्पते यन्ति गिरो न संयतः ॥१७६९॥
त्वा꣢म् । इत् । श꣣वसः । पते । य꣡न्ति꣢꣯ । गि꣡रः꣢꣯ । न । सं꣣य꣡तः꣢ । स꣣म् । य꣡तः꣢꣯ ॥१७६९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में जगदीश्वर वा आचार्य की महिमा वर्णित है।
हे (शवसः पते) अध्यात्म-बल, ब्रह्मबल वा विद्याबल के स्वामी परमेश्वर वा आचार्य ! (गिरः न) वाणियों के समान (संयतः) प्रत्यनशील प्रजाएँ भी (त्वाम् इत्) आपको ही (यन्ति) प्राप्त होती हैं ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥
जैसे वेदवाणियाँ जगदीश्वर के गुणों का वर्णन करती हैं और पुरुषार्थी प्रजाएँ उसे पाने का यत्न करती हैं, वैसे ही आचार्य की भी वाणियों से स्तुति करनी चाहिए तथा प्रयत्नशील विद्यार्थियों को शिष्यभाव से उसके समीप पहुँचना चाहिए ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ जगदीश्वरस्याचार्यस्य च महिमा वर्ण्यते।
हे (शवसः पते) अध्यात्मबलस्य ब्रह्मबलस्य विद्याबलस्य वा स्वामिन् परमेश आचार्य वा ! (गिरः न) वाचः इव (संयतः) प्रयत्नशीलाः प्रजा अपि। [संयतन्ते इति संयतः, सम्पूर्वो यती प्रयत्ने भ्वादिः, ततः क्विप् प्रत्ययः।] (त्वाम् इत्) त्वामेव (यन्ति) प्राप्नुवन्ति ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
यथा वेदवाचो जगदीशगुणान् वर्णयन्ति पुरुषार्थिन्यः प्रजाश्च तं प्राप्तुं यतन्ते तथैवाचार्योऽपि वाग्भिः स्तोतव्यः प्रयत्नशीलैर्विद्यार्थिभिः शिष्यभावेनोपसदनीयश्च ॥२॥