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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: नृमेध आङ्गिरसः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

सु꣣ष꣡हा꣢ सोम꣣ ता꣡नि꣢ ते पुना꣣ना꣡य꣢ प्रभूवसो । व꣡र्धा꣢ समु꣣द्र꣡मु꣢क्थ्य ॥१७६७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

सुषहा सोम तानि ते पुनानाय प्रभूवसो । वर्धा समुद्रमुक्थ्य ॥१७६७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सु꣣ष꣡हा꣢ । सु꣣ । स꣡हा꣢꣯ । सो꣣म । ता꣡नि꣢꣯ । ते꣣ । पुनाना꣡य꣢ । प्र꣣भूवसो । प्रभु । वसो । व꣡र्ध꣢꣯ । स꣣मु꣢द्रम् । स꣣म् । उ꣢द्रम् । उ꣣क्थ्य ॥१७६७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1767 | (कौथोम) 9 » 1 » 1 » 3 | (रानायाणीय) 20 » 1 » 1 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमेश्वर से प्रार्थना की गयी है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(हे प्रभूवसो) प्रचुर ऐश्वर्यवाले (सोम) जगत्पति, सर्वान्तर्यामी परमेश्वर ! (पुनानाय) स्वयं को पवित्र करनेवाले उपासक के लिये (ते) आपके (तानि) वे प्रसिद्ध तेज (सुषहा) भली-भाँति काम, क्रोध आदि रिपुओं को परास्त करनेवाले होवें। हे (उक्थ्य) प्रशंसनीय सोम अर्थात् चन्द्रमा के समान आह्लादक परमात्मदेव ! आप (समुद्रम्) ऐश्वर्य के समुद्र को (वर्ध) बढ़ाओ ॥३॥

भावार्थभाषाः -

पूर्ण चन्द्रमा-रूप सोम जैसे पानी के समुद्र को बढ़ाता है, वैसे ही भक्ति के उपहारों से पूर्ण सोम परमेश्वर उपासक के लिए भौतिक और दिव्य ऐश्वर्य के समुद्र को बढ़ाता है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमेश्वरः प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (प्रभूवसो) प्रभूतैश्वर्य (सोम) जगत्पते सर्वान्तर्यामिन् परमेश ! (पुनानाय) स्वात्मानं पवित्रीकुर्वाणाय उपासकाय (ते) तव (तानि) प्रसिद्धानि तेजांसि (सुषहा) सुषहाणि सम्यक् कामक्रोधादिरिपूणामभिभवकराणि, सन्तु इति शेषः। हे (उक्थ्य) प्रशंसनीय सोम चन्द्रवदाह्लादक देव ! त्वम् (समुद्रम्) ऐश्वर्यसमुद्रम् (वर्ध) वर्धय। [रायः समुद्रांश्चतुरः। साम० ७० इति वचनात् समुद्रेणात्र ऐश्वर्यसमुद्रो गृह्यते] ॥३॥

भावार्थभाषाः -

पूर्णः सोमश्चन्द्रो यथा जलस्य समुद्रं वर्धयति तथैव भक्त्युपहारैः पूर्णः सोमः परमेश्वर उपासकाय भौतिकस्य दिव्यस्य चैश्वर्यस्य समुद्रं वर्धयति ॥३॥