स꣡प्तिं꣢ मृजन्ति वे꣣ध꣡सो꣢ गृ꣣ण꣡न्तः꣢ का꣣र꣡वो꣢ गि꣣रा꣢ । ज्यो꣡ति꣢र्जज्ञा꣣न꣢मु꣣꣬क्थ्य꣢꣯म् ॥१७६६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सप्तिं मृजन्ति वेधसो गृणन्तः कारवो गिरा । ज्योतिर्जज्ञानमुक्थ्यम् ॥१७६६॥
स꣡प्ति꣢꣯म् । मृ꣣जन्ति । वेध꣡सः꣢ । गृ꣣ण꣡न्तः꣢ । का꣣र꣡वः꣢ । गि꣣रा꣢ । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । ज꣣ज्ञान꣢म् । उ꣣क्थ्य꣢म् ॥१७६६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह बताते हें कि कौन कैसे परमेश्वर की आराधना करते हैं।
(गिरा) वाणी से (गृणन्तः) अर्चना करते हुए (वेधसः) मेधावी (कारवः) स्तोता लोग (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय (ज्योतिः) प्रकाश को (जज्ञानम्) उत्पन्न करनेवाले (सप्तिम्) सप्तरश्मि सूर्य के समान विद्यमान सोम परमात्मा को (सृजन्ति) अपने आत्मा में प्रकट करते हैं ॥२॥
सूर्य के समान प्रकाशक परमेश्वर की उपासना से उपासक के आत्मा में दिव्य ज्योति का प्रकाश फैल जाता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ के कीदृशं परमात्मानमाराध्नुवन्तीत्याह।
(गिरा) वाचा (गृणन्तः) अर्चन्तः। [गृणातिः अर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४।] (वेधसः) मेधाविनः। [वेधा इति मेधाविनाम। निघं० ३।१५।] (कारवः) स्तोतारः। [कारुः कर्ता स्तोमानाम्। निरु० ६।५।] (उक्थ्यम्) प्रशंसनीयम् (ज्योतिः) प्रकाशम् (जज्ञानम्) उत्पादयन्तम् (सप्तिम्) सप्तरश्मिं सूर्यमिव विद्यमानं सोमं परमात्मानम् (सृजन्ति) स्वात्मनि प्रकटयन्ति ॥२॥
सूर्यवत् प्रकाशकस्य परमेश्वरस्योपासनेनोपासकस्यात्मनि दिव्यं ज्योतिः प्रकाशते ॥२॥