प्रा꣢स्य꣣ धा꣡रा꣢ अक्षर꣣न्वृ꣡ष्णः꣢ सु꣣त꣡स्यौज꣢꣯सः । दे꣣वा꣡ꣳ अनु꣢꣯ प्र꣣भू꣡ष꣢तः ॥१७६५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्रास्य धारा अक्षरन्वृष्णः सुतस्यौजसः । देवाꣳ अनु प्रभूषतः ॥१७६५॥
प्र꣢ । अ꣣स्य । धा꣡राः꣢꣯ । अ꣢क्षरन् । वृ꣡ष्णः꣢꣯ । सु꣣त꣡स्य꣢ । ओ꣡ज꣢꣯सः । दे꣣वा꣢न् । अ꣡नु꣢꣯ । प्र꣣भू꣡षतः । प्र꣣ । भू꣡ष꣢꣯तः ॥१७६५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में आनन्द की धाराओं का वर्णन है।
(वृष्णः) मनोरथों को पूर्ण करनेवाले, (सुतस्य) प्रकट किये हुए, (ओजसः) ओजस्वी, (देवान्) विद्वान् उपासकों को (अनु) अनुकूलतापूर्वक (प्र भूषतः) दिव्य गुणों से अलंकृत करते हुए (अस्य) इस पवित्र करनेवाले रसागार परमात्मा की (धाराः) आनन्द-धाराएँ (प्र अक्षरन्) बरस रही हैं ॥१॥
मेघ से पवित्र जल-धाराओं के समान रसमय परमेश्वर से जो पवित्र और पवित्रतादायिनी परमानन्द की धाराएँ बरसती हैं, उनमें सबको चाहिए कि वे अपने आत्मा को नहलाएँ ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथानन्दधारा वर्णयति।
(वृष्णः) कामवर्षकस्य, (सुतस्य) प्रकटीकृतस्य, (ओजसः) ओजस्विनः [अत्र मतुबर्थकस्य लुक्।] (देवान्) विदुषः उपासकान् (अनु) आनुकूल्येन (प्रभूषतः) दिव्यगुणैः अलङ्कुर्वतः (अस्य) एतस्य (पवमानस्य) सोमस्य पावकस्य रसागारस्य परमात्मनः (धाराः) आनन्दधाराः (प्र अक्षरन्) प्रवर्षन्ति ॥१॥
मेघात् पवित्रास्तोयधारा इव रसमयात् परमेश्वरात् पवित्राः पाविकाश्च याः परमानन्दधारा वर्षन्ति तासु सर्वैः स्वात्मा स्नपनीयः ॥१॥