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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: अवत्सारः काश्यपः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

स꣢ नो꣣ वि꣡श्वा꣢ दि꣣वो꣢꣫ वसू꣣तो꣡ पृ꣢थि꣣व्या꣡ अधि꣢꣯ । पु꣣नान꣡ इ꣢न्द꣣वा꣡ भ꣢र ॥१७६४॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

स नो विश्वा दिवो वसूतो पृथिव्या अधि । पुनान इन्दवा भर ॥१७६४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः꣢ । नः꣣ । वि꣡श्वा꣢꣯ । दि꣣वः꣢ । व꣡सु꣢꣯ । उ꣣त꣢ । उ꣢ । पृथिव्याः꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । पु꣣नानः꣢ । इ꣣न्दो । आ꣡ । भ꣢र ॥१७६४॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1764 | (कौथोम) 8 » 3 » 18 » 4 | (रानायाणीय) 19 » 5 » 3 » 4


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमेश्वर से प्रार्थना की गयी है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्दो) आनन्द-रस से भिगोनेवाले रसागार जगदीश ! (पुनानः) पवित्र करते हुए (सः) वे धनाधीश आप (दिवः) आत्मलोक से (उत उ) और (पृथिव्याः अधि) पार्थिव देह से (विश्वा वसु) सब आत्मबल, योगसिद्धि, आरोग्य आदि धनों को (नः) हमारे लिए (आ भर) लाओ ॥४॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर की कृपा से हम शारीरिक उन्नति और आत्मिक उन्नति करते हुए अभ्युदय और निःश्रेयस के अधिकारी हों ॥४॥ इस खण्ड में प्राकृतिक और आध्यात्मिक उषाओं, प्राणापानों से चालित शरीर-रथ, परमेश्वर और परमेश्वर से होनेवाली आनन्द-वर्षाओं का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ उन्नीसवें अध्याय में पाँचवाँ खण्ड समाप्त ॥ उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ अष्टम प्रपाठक में तृतीय अर्ध समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमेश्वरः प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्दो) आनन्दरसेन क्लेदक रसागार जगदीश ! (पुनानः) पवित्रीकुर्वाणः (सः) असौ धनाधीशः त्वम् (दिवः) आत्मलोकाद् (उत उ) अपि च (पृथिव्याः अधि) पार्थिवाद् देहात् (विश्वा वसु) विश्वानि आत्मबलयोगसिद्ध्यारोग्यादीनि वसूनि (नः) अस्मभ्यम् (आ भर) आहर ॥४॥

भावार्थभाषाः -

परमेशकृपातो वयं दैहिकोन्नतिमात्मिकोन्नतिं च कुर्वाणा अभ्युदयनिःश्रेयसाधिकारिणो भवेम ॥४॥ अस्मिन् खण्डे प्राकृतिकीनामाध्यात्मिकीनां चोषसां, प्राणापानचालितस्य देहरथस्य, परमेश्वरस्य, परमेश्वरकृतानामानन्दवृष्टीनां च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥ इति बरेलीमण्डलान्तर्गतफरीदपुरवास्तव्यश्रीमद्गोपालराम-भगवतीदेवीतनयेन हरिद्वारीयगुरुकुलकाङ्गड़ी-विश्वविद्यालयेऽधीतविद्येन विद्यामार्तण्डेन आचार्यरामनाथवेदालङ्कारेण महर्षिदयानन्दसरस्वतीस्वामिकृत-वेदभाष्यशैलीमनुसृत्य विरचिते संस्कृतार्यभाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्ते सामवेदभाष्ये उत्तरार्चिकेऽष्टमः प्रपाठकः समाप्तिमगात् ॥