प्र꣢ ते꣣ धा꣡रा꣢ अस꣣श्च꣡तो꣢ दि꣣वो꣡ न य꣢꣯न्ति वृ꣣ष्ट꣡यः꣢ । अ꣢च्छा꣣ वा꣡ज꣢ꣳ सह꣣स्रि꣡ण꣢म् ॥१७६१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्र ते धारा असश्चतो दिवो न यन्ति वृष्टयः । अच्छा वाजꣳ सहस्रिणम् ॥१७६१॥
प्र꣢ । ते꣣ । धा꣡राः꣢꣯ । अ꣣सश्च꣡तः꣢ । अ꣣ । सश्च꣡तः꣢ । दि꣣वः꣢ । न । य꣣न्ति । वृष्ट꣡यः꣢ । अ꣡च्छ꣢꣯ । वा꣡ज꣢꣯म् । स꣣हस्रि꣡ण꣢म् ॥१७६१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में आनन्द-वर्षाओं का वर्णन है।
हे पवमान सोम अर्थात् पवित्र करनेवाले रसागर परमेश्वर ! (असश्चतः) किसी से भी रुकावट न डाली गई (ते) आपकी (धाराः) आनन्द-धाराएँ (सहस्रिणम्) सहस्र संख्यावाले (वाजम्) बल को (अच्छ) प्राप्त कराने के लिए (प्र यन्ति) उपासक के पास पहुँचती हैं, (दिवः) न जैसे आकाश से (वृष्टयः) वर्षाएँ (वाजम्) अन्न को (अच्छ) प्राप्त कराने के लिए (प्रयन्ति) भूतल पर पहुँचती हैं ॥१॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥१॥
जैसे मेघ से वर्षा की धाराएँ अन्न उत्पन्न करने के लिए खेतों पर बरसती हैं, वैसे ही जगदीश्वर से आनन्द की धाराएँ बल उत्पन्न करने के लिए उपासकों के अन्तरात्मा में बरसती हैं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथानन्दवर्षा वर्ण्यन्ते।
हे पवमान सोम पावक रसागार परमेश्वर ! (असश्चतः) केनापि अप्रतिरुध्यमानस्य२ (ते) तव (धाराः) आनन्दधाराः (दिवः) आकाशात् (वृष्टयः न) वर्षाः इव (सहस्रिणम्) सहस्रसंख्यावन्तम् (वाजम्) बलम् (अच्छ) प्रापयितुम् (प्र यन्ति) उपासकं प्रति प्र यान्ति, (दिवः न) आकाशाद् यथा (वृष्टयः) वर्षाः (वाजम्) अन्नम् (अच्छ) प्रापयितुम् (प्र यन्ति) भूतलं प्रयान्ति। [वाजः इत्यन्ननाम बलनाम च। निघं० २।७,९] ॥१॥
यथा मेघाद् वर्षाधारा अन्नमुत्पादयितुं क्षेत्रेषु वर्षन्ति तथा जगदीश्वरादानन्दधारा बलमुत्पादयितुमुपासकानामन्तरात्मनि वर्षन्ति ॥१॥