प्र꣡ति꣢ प्रि꣣य꣡त꣢म꣣ꣳ र꣢थं꣣ वृ꣡ष꣢णं वसु꣣वा꣡ह꣢नम् । स्तो꣣ता꣡ वा꣢मश्विना꣣वृ꣢षि꣣ स्तो꣡मे꣢भिर्भूषति꣣ प्र꣢ति꣣ मा꣢ध्वी꣣ म꣡म꣢ श्रुत꣣ꣳ ह꣡व꣢म् ॥१७४३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्रति प्रियतमꣳ रथं वृषणं वसुवाहनम् । स्तोता वामश्विनावृषि स्तोमेभिर्भूषति प्रति माध्वी मम श्रुतꣳ हवम् ॥१७४३॥
प्र꣡ति꣢꣯ । प्रि꣣य꣡त꣢मम् । र꣡थ꣢꣯म् । वृ꣡ष꣢꣯णम् । व꣣सुवा꣡ह꣢नम् । व꣣सु । वा꣡ह꣢꣯नम् । स्तो꣣ता꣢ । वा꣣म् । अश्विनौ । ऋ꣡षिः꣢꣯ । स्तो꣡मे꣢꣯भिः । भू꣣षति । प्र꣡ति꣢꣯ । मा꣢꣯ध्वीइ꣡ति꣢ । म꣡म꣢꣯ । श्रु꣣तम् । ह꣡व꣢꣯म् ॥१७४३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ४१८ क्रमाङ्क पर अध्यात्म विषय तथा शिल्प विषय में व्याख्यात की जा चुकी है। यहाँ योगाभ्यास का विषय कहते हैं।
हे (अश्विनौ) योगशास्त्र के अध्यापक और योगक्रिया के प्रशिक्षक ! (प्रियतमम्) अतिशय प्रिय, (वृषणम्) बलवान्, (वसुवाहनम्) निवासक मन, प्राण, इन्द्रियों आदि से चलाये जानेवाले (रथम्) आत्मा से अधिष्ठित शरीर-रथ को (प्रति) लक्ष्य करके अर्थात् अध्यात्म और शरीर-योग का प्रशिक्षण देने के लिए (स्तोता) तुम्हारा प्रशंसक (ऋषिः) तत्त्वदर्शी आचार्य (स्तोमेभिः) प्रशंसा-वचनों से (वाम्) तुम दोनों को (प्रतिभूषति) अलंकृत कर रहा है अर्थात् तुम्हारी प्रशंसा कर रहा है। हे (माध्वी) प्राणों की मधुविद्या जाननेवालो ! तुम (मम) मुझ योग-प्रशिक्षण चाहनेवाले की (हवम्) पुकार को (श्रुतम्) सुनो ॥१॥
जो योग-प्रशिक्षण पाने के इच्छुक हों, उन्हें चाहिए कि वे योगकला में कुशल, प्राणविद्या के ज्ञाता योगशास्त्र पढ़ानेवाले और योग-क्रियाओं का प्रशिक्षण देनेवाले के पास जाकर अष्टाङ्गयोग की विधि से योगाभ्यास करके सब दुःखों से मुक्ति प्राप्त करें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४१८ क्रमाङ्केऽध्यात्मविषये शिल्पविषये च व्याख्याता। अत्र योगाभ्यासविषय उच्यते।
हे (अश्विनौ) योगशास्त्राध्यापकयोगक्रियाप्रशिक्षकौ ! (प्रियतमम्) अतिशयेन प्रियम्, (वृषणम्) बलवन्तम्, (वसुवाहनम्) वसुभिः निवासकैः मनःप्राणेन्द्रियादिभिः उह्यते इति वसुवाहनः तम् (रथम्) आत्माधिष्ठितं देहरथम् (प्रति) उद्दिश्य शिष्येषु अध्यात्मशारीरयोगप्रशिक्षणायेत्यर्थः (स्तोता) युष्मत्प्रशंसकः (ऋषिः) तत्त्वद्रष्टा आचार्यः (स्तोमेभिः) प्रशंसावचनैः (वाम्) युवाम् (प्रतिभूषति) अलङ्करोति, युवां प्रशंसतीत्यर्थः। हे (माध्वी) प्राणानां मधुविद्याविदौ ! युवाम् (मम) योगप्रशिक्षणार्थिनः (हवम्) आह्वानम् (श्रुतम्) शृणुतम् ॥१॥२
ये योगप्रशिक्षणं प्राप्तुमिच्छेयुस्ते योगकलाकुशलौ प्राणविद्याविदौ योगाध्यापक-योगक्रियाप्रशिक्षकौ प्राप्याष्टाङ्गयोगविधिना योगमभ्यस्य सकलदुःखमोक्षमधिगच्छेयुः ॥१॥