अ꣣ग्नि꣢꣫र्हि वा꣣जि꣡नं꣢ वि꣣शे꣡ ददा꣢꣯ति वि꣣श्व꣡च꣢र्षणिः । अ꣣ग्नी꣢꣯ रा꣣ये꣢ स्वा꣣भु꣢व꣣ꣳ स꣢ प्री꣣तो꣡ या꣢ति꣣ वा꣢र्य꣣मि꣡ष꣢ꣳ स्तो꣣तृ꣢भ्य꣣ आ꣡ भ꣢र ॥१७३८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अग्निर्हि वाजिनं विशे ददाति विश्वचर्षणिः । अग्नी राये स्वाभुवꣳ स प्रीतो याति वार्यमिषꣳ स्तोतृभ्य आ भर ॥१७३८॥
अ꣣ग्निः꣢ । हि । वा꣣जि꣡न꣢म् । वि꣣शे꣢ । द꣡दा꣢꣯ति । वि꣣श्व꣢च꣢र्षणिः । वि꣣श्व꣢ । च꣣र्षणिः । अग्निः꣢ । रा꣣ये꣢ । स्वा꣣भु꣡व꣢म् । सु꣣ । आभु꣡व꣢म् । सः । प्री꣣तः꣢ । या꣣ति । वा꣡र्य꣢꣯म् । इ꣡ष꣢꣯म् । स्तो꣣तृ꣡भ्यः꣢ । आ । भ꣣र ॥१७३८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब यह कहते हैं कि वह अग्नि नामक जगदीश्वर क्या करता है।
(विश्वचर्षणिः) विश्व का द्रष्टा (अग्निः हि) अग्निशब्दवाच्य जगदीश्वर ही (विशे) प्रजा को (वाजिनम्) बलवान् प्राण (ददाति) देता है। (अग्निः) वह अग्निशब्दवाच्य जगदीश्वर ही (सु आभुवम्) भली-भाँति शरीर में जन्म ग्रहण किये हुए जीव को (राये) ऐश्वर्य के लिए प्रेरित करता है। (प्रीतः) शुभ कर्मों से प्रसन्न हुआ (सः) वह अग्नि जगदीश्वर (वार्यम्) वरणीय उपासक को (याति) प्राप्त होता है। हे जगदीश ! (स्तोतृभ्यः) आपके गुण-कर्म-स्वभाव की स्तुति करनेवाले मनुष्यों को आप (इषम्) अभीष्ट अभ्युदय और निःश्रेयसरूप फल (आ भर) प्रदान करो ॥२॥
कोई सम्राट् जैसे प्रजाओं को शुभ कर्मों में प्रेरित करता हुआ उन्हें सुख और ऐश्वर्य प्रदान करता है, वैसे ही जगदीश्वर उपासकों को अभ्युदय और मोक्षरूप फल देकर उनका कल्याण करता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ सोऽग्निनामा जगदीश्वरः किं करोतीत्याह।
(विश्वचर्षणिः) विश्वद्रष्टा (अग्निः हि) अग्निशब्दाभिधेयो जगदीश्वरः खलु (विशे) प्रजायै (वाजिनम्) बलवन्तं प्राणम् (ददाति) प्रयच्छति। (अग्निः) स एवाग्निशब्दवाच्यो जगदीश्वरः (सु-आभुवम्) सम्यग् देहे गृहीतजन्मानं जीवम् (राये) ऐश्वर्याय, प्रेरयतीति शेषः। (प्रीतः) शुभकर्मभिः प्रसन्नः (सः) अग्निर्जगदीश्वरः (वार्यम्) वरणीयम् उपासकम् (याति) प्राप्नोति। हे जगदीश ! (स्तोतृभ्यः) त्वद्गुणकर्मस्वभावकीर्तनपरेभ्यो जनेभ्यः त्वम् (इषम्) अभीष्टम् अभ्युदयनिःश्रेयसरूपं फलम् (आ भर) आहर ॥२॥२
कोऽपि सम्राड् यथा प्रजाः शुभकर्मसु प्रेरयन् ताभ्यः सुखमैश्वर्यं च ददाति तथैव जगदीश्वरम् उपासकेभ्योऽभ्युदयनिःश्रेयसरूपं फलं प्रदाय तेषां कल्याणं करोति ॥२॥