या꣢वि꣣त्था꣢꣫ श्लोक꣣मा꣢ दि꣣वो꣢꣫ ज्योति꣣र्ज꣡ना꣢य च꣣क्र꣡थुः꣢ । आ꣢ न꣣ ऊ꣡र्जं꣢ वहतमश्विना यु꣣व꣢म् ॥१७३६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यावित्था श्लोकमा दिवो ज्योतिर्जनाय चक्रथुः । आ न ऊर्जं वहतमश्विना युवम् ॥१७३६॥
यौ꣢ । इ꣣त्था꣢ । श्लो꣡क꣢꣯म् । आ । दि꣣वः꣢ । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । ज꣡ना꣢꣯य । च꣣क्र꣡थुः꣢ । आ । नः꣣ । ऊ꣡र्ज꣢꣯म् । व꣣हतम् । अश्विना । युव꣢म् ॥१७३६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर उसी विषय को कहते हैं।
हे (अश्विनौ) जीवन में व्याप्त प्राणापानो ! (यौ) जो तुम दोनों (इत्था) सचमुच (जनाय) योगसाधक मनुष्य के लिए (दिवः) तेजस्वी जीवात्मा की (श्लोकम्) स्तुतियोग्य (ज्योतिः) ज्योति (चक्रथुः) उत्पन्न करते हो, वे (युवम्) तुम दोनों (नः) हमें (ऊर्जम्) बल (आवहतम्) प्राप्त कराओ ॥३॥
प्राणायाम द्वारा प्रकाश पर पड़े हुए आवरण के क्षय से ज्योति की प्राप्ति और आत्मा तथा प्राण के बल की प्राप्ति होने पर धारणाओं में मन की योग्यता हो जाती है ॥३॥ इस खण्ड में प्राकृतिक और दिव्य उषा, ॠतम्भरा प्रज्ञा, आत्मा-मन, जगदम्बा और प्राण-अपान के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ उन्नीसवें अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
हे (अश्विनौ) जीवनप्याप्तौ प्राणापानौ ! (यौ) यौ युवाम् (इत्था) सत्यम् (जनाय) योगसाधकाय मनुष्याय (दिवः) द्योतमानस्य जीवात्मनः (श्लोकम्) उपश्लोक्यं स्तुत्यम् (ज्योतिः) प्रकाशम् (चक्रथुः) कुरुतः, तौ (युवम्) युवाम् (नः) अस्मभ्यम् (ऊर्जम्) बलम्। [ऊर्ज बलप्राणनयोः, चुरादिः।] (आ वहतम्) प्रापयतम् ॥३॥२
प्राणायामेन प्रकाशावरणक्षयात् ज्योतिष्प्राप्तौ सत्याम् आत्मप्राणयोर्बले च प्राप्ते धारणासु मनसो योग्यता जायते ॥३॥३ अस्मिन् खण्डे प्राकृतिक्या दिव्यायाश्चोषसः ऋतम्भरायाः प्रज्ञाया आत्ममनसोर्जगदम्बायाः प्राणापानयोश्च विषयाणां वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥