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देवता: अश्विनौ ऋषि: गोतमो राहूगणः छन्द: उष्णिक् स्वर: ऋषभः काण्ड:

ए꣢꣫ह दे꣣वा꣡ म꣢यो꣣भु꣡वा꣢ द꣣स्रा꣡ हिर꣢꣯ण्यवर्त्तनी । उ꣣षर्बु꣡धो꣢ वहन्तु꣣ सो꣡म꣢पीतये ॥१७३५॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

एह देवा मयोभुवा दस्रा हिरण्यवर्त्तनी । उषर्बुधो वहन्तु सोमपीतये ॥१७३५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ꣢ । इ꣣ह꣢ । दे꣣वा꣢ । म꣣योभुवा । मयः । भु꣡वा꣢꣯ । द꣣स्रा꣢ । हि꣡र꣢꣯ण्यवर्त्तनी । हि꣡र꣢꣯ण्य । व꣣र्त्तनीइ꣡ति꣢ । उ꣣षर्बु꣡धः꣢ । उ꣣षः । बु꣡धः꣢꣯ । व꣣हन्तु । सो꣡म꣢꣯पीतये । सो꣡म꣢꣯ । पी꣣तये ॥१७३५॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1735 | (कौथोम) 8 » 3 » 9 » 2 | (रानायाणीय) 19 » 2 » 4 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में प्राणायाम का विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(उषर्बुधः) जो उषा-काल में बोध प्राप्त करते हैं, वे लोग (सोमपीतये) सुख, स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य, शान्ति आदि की रक्षा के लिए, (इह) इस शरीर में (देवा) गमन-आगमन करनेवाले, (मयोभुवा) सुख देनेवाले (दस्रा) दोषों को क्षीण करनेवाले, (हिरण्यवर्त्तनी) शारीरिक और मानसिक तेज को देनेवाले प्राण-अपान रूप अश्विनों को (आ वहन्तु) लायें, अर्थात् प्राणायाम को साधें ॥२॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्यों को चाहिए कि योग के अङ्ग प्राणायाम के द्वारा सब शारीरिक व मानसिक दोषों को जलाकर, योगसिद्धि प्राप्त करके अभ्युदय और निःश्रेयस को सिद्ध करें ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ प्राणायामविषय उच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(उषर्बुधः) ये उषसि बुध्यन्ते बोधं प्राप्नुवन्ति ते जनाः (सोमपीतये) सोमस्य सुखस्वास्थ्यदीर्घायुष्यशान्त्यादेः पीतिः रक्षणं तस्मै (इह) देहे (देवा) देवौ, गमनागमनकारिणौ, (मयोभुवा) सुखस्य भावयितारौ, (दस्रा) दोषाणामुपक्षेतारौ, (हिरण्यवर्तनी) हिरण्यं शारीरं मानसं च तेजो वर्तयन्तौ अश्विनौ प्राणापानौ (आ वहन्तु) आनयन्तु, प्राणायामं साध्नुवन्त्विति भावः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

योगाङ्गेन प्राणायामेन सर्वान् शारीरान् मानसांश्च दोषान् दग्ध्वा योगसिद्धिं प्राप्य जनैरभ्युदयनिःश्रेयसे साधनीये ॥२॥