अ꣡श्वे꣢व चि꣣त्रा꣡रु꣢षी मा꣣ता꣡ गवा꣢꣯मृ꣣ता꣡व꣢री । स꣡खा꣢ भूद꣣श्वि꣡नो꣢रु꣣षाः꣡ ॥१७२६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अश्वेव चित्रारुषी माता गवामृतावरी । सखा भूदश्विनोरुषाः ॥१७२६॥
अ꣡श्वा꣢꣯ । इ꣣व । चित्रा꣢ । अ꣡रु꣢꣯षी । मा꣣ता꣢ । ग꣡वा꣢꣯म् । ऋ꣣ता꣡व꣢री । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ । भूत् । अश्वि꣡नोः꣢ । उ꣣षाः꣢ ॥१७२६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर उसी विषय को कहा गया है।
प्रथम—प्राकृतिक उषा के पक्ष में। (अश्वा इव) आकाश-व्यापी बिजली के समान (चित्रा) चित्र-विचित्र रंगवाली, (अरुषी) चमकीली, (गवां माता) किरणों की जननी, (ऋतावरी) सत्य नियमवाली (उषाः) उषा (अश्विनोः) आकाश और भूमि की (सखा) सहचरी (अभूत्) हो गयी है ॥ द्वितीय—दिव्य उषा के पक्ष में। (अश्वा इव) व्याप्त विद्युत् के समान (चित्रा) अद्भुत, (अरुषी) हिंसा न करनेवाली, (गवां माता) अध्यात्म-रश्मियों की माता (ऋतावरी) सत्यमयी (उषाः) ऋतम्भरा प्रज्ञा (अश्विनोः) आत्मा और मन की (सखा) सहचरी (अभूत्) हो गयी है ॥२॥ यहाँ श्लेष और उपमा अलङ्कार हैं ॥२॥
जैसे अटल नियम से प्रतिदिन उदित होती हुई प्रकाशवती प्राकृतिक उषा आकाश-भूमि में व्याप जाती है, वैसे ही योगमार्ग में सत्यमयी ऋतम्भरा प्रज्ञा योगसाधक के आत्मा और मन को व्याप लेती है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।
प्रथमः—प्राकृतिक्या उषसः पक्षे। पश्यत, (अश्वा इव) अतरिक्षव्यापिनी विद्युदिव (चित्रा) चित्रवर्णा, (अरुषी) आरोचमाना। [अरुषीः आरोचनात्। निरु० १२।७।] (गवाम् माता) रश्मीनां जननी, (ऋतावरी) सत्यनियमवती। [अत्र छन्दसीवनिपौ वा०, अ० ५।२।१०९ इति वनिप्। ‘वनो र च’ अ० ४।१।७ इति स्त्रियां ङीष् नकारस्य रेफश्च। ‘अन्येषामपि दृश्यते।’ अ० ६।३।१३७ इति ऋतस्य दीर्घान्तादेशः।] (उषाः) प्रभातकान्तिः (अश्विनोः) द्यावापृथिव्योः (सखा) सखी, सहचारिणी (अभूत्) अजायत। [सखिशब्दस्य स्त्रियां सखी इति प्राप्ते, छन्दसि स्त्रियामपि ‘अनङ् सौ’ अ० ७।१।९३ इत्यनङि सखा इति रूपं भवति] ॥ द्वितीयः—दिव्याया उषसः पक्षे। (अश्वा इव) व्यापिनी विद्युदिव (चित्रा) अद्भुता, (अरुषी) अहिंसिका। [रोषति हिनस्तीति रुषी, न रुषी अरुषी। रुष हिंसार्थः, भ्वादिः।] (गवाम् माता) अध्यात्मकिरणानां जननी, (ऋतावरी) ऋतमयी (उषाः) ऋतम्भरा प्रज्ञा (अश्विनोः) आत्ममनसोः (सखा) सहचारिणी (अभूत्) अजायत ॥२॥२ अत्र श्लेष उपमा चालङ्कारः ॥२॥
यथा सत्यनियमेन प्रत्यहमुदीयमाना दीप्तिमती प्राकृतिक्युषा द्यावापृथिव्यौ व्याप्नोति तथैव योगमार्गे सत्यमयी ऋतम्भरा प्रज्ञा योगसाधकस्यात्ममनसी व्याप्नोति ॥२॥