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त्व꣢म꣣ङ्ग꣡ प्र श꣢꣯ꣳसिषो दे꣣वः꣡ श꣢विष्ठ꣣ म꣡र्त्य꣢म् । न꣢꣫ त्वद꣣न्यो꣡ म꣢घवन्नस्ति मर्डि꣣ते꣢न्द्र꣣ ब्र꣡वी꣢मि ते꣣ व꣡चः꣢ ॥१७२३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

त्वमङ्ग प्र शꣳसिषो देवः शविष्ठ मर्त्यम् । न त्वदन्यो मघवन्नस्ति मर्डितेन्द्र ब्रवीमि ते वचः ॥१७२३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्व꣢म् । अ꣣ङ्ग꣢ । प्र । श꣣ꣳसिषः । देवः꣢ । श꣣विष्ठ । म꣡र्त्य꣢꣯म् । न । त्वत् । अ꣣न्यः꣢ । अ꣣न् । यः꣢ । म꣣घवन् । अस्ति । मर्डिता꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯ । ब्र꣡वी꣢꣯मि । ते꣣ । व꣡चः꣢꣯ ॥१७२३॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1723 | (कौथोम) 8 » 3 » 5 » 1 | (रानायाणीय) 19 » 1 » 5 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में २४७ क्रमाङ्क पर परमात्मा और राजा के विषय में की गयी थी। यहाँ जगदीश्वर और आचार्य को सम्बोधन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (शविष्ठ) आत्मबल से बलिष्ठ जगदीश्वर वा आचार्य ! (देवः) प्रकाशक और विद्या आदि के दाता (त्वम्) आप (अङ्ग) शीघ्र ही (मर्त्यम्) उपासक मनुष्य वा शिष्य को (प्र शंसिषः) प्रशंसा का पात्र बनाओ। हे (मघवन्) सकल ऐश्वर्यों से युक्त जगदीश्वर वा विद्या के ऐश्वर्य से युक्त आचार्य ! (त्वत् अन्यः) आपसे भिन्न कोई (मर्डिता) मोक्ष-प्रदान वा विद्या आदि के प्रदान के द्वारा सुखदाता (न अस्ति) नहीं है। हे (इन्द्र) जगदीश्वर वा आचार्य ! मैं (ते) आपके लिए (वचः) प्रार्थना-वचन (ब्रवीमि) उच्चारण कर रहा हूँ ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर की उपासना करके और आचार्य के समीप शिष्यभाव से पहुँच कर मनुष्यों को सब अभ्युदय और निःश्रेयस प्राप्त करना चाहिए ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २४७ क्रमाङ्के परमात्मनृपत्योर्विषये व्याख्याता। अत्र जगदीश्वर आचार्यश्च सम्बोध्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (शविष्ठ) आत्मबलेन बलिष्ठ जगदीश्वर आचार्य वा ! (देवः) प्रकाशको विद्यादिदाता च (त्वम् अङ्ग) क्षिप्रम्। [अङ्गेति क्षिप्रनाम। निरु० ५।१७।] (मर्त्यम्) उपासकं मनुष्यम् शिष्यं वा (प्र शंसिषः) प्रशंसाभाजनं कुरु। हे (मघवन्) सकलैश्वर्ययुक्त जगदीश्वर विद्यैश्वर्यवन् आचार्य वा ! (त्वत् अन्यः) त्वद् भिन्नः कश्चित् (मर्डिता) मोक्षप्रदानेन विद्यादिप्रदानेन वा सुखयिता (न अस्ति) न विद्यते। हे (इन्द्र) जगदीश्वर आचार्य वा ! अहम् (ते) तुभ्यम् (वचः) प्रार्थनावचनं (ब्रवीमि) उच्चारयामि ॥१॥२

भावार्थभाषाः -

परमेश्वरमुपास्याचार्यं च शिष्यभावेनोपगम्य जनाः सकलमभ्युदयं निःश्रेयसं च प्राप्नुवन्तु ॥१॥