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ये꣢ ते꣣ प꣡न्था꣢ अ꣣धो꣢ दि꣣वो꣢꣫ येभि꣣꣬र्व्य꣢꣯श्व꣣मै꣡र꣢यः । उ꣣त꣡ श्रो꣢षन्तु नो꣣ भु꣡वः꣢ ॥१७२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

ये ते पन्था अधो दिवो येभिर्व्यश्वमैरयः । उत श्रोषन्तु नो भुवः ॥१७२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ये꣢ । ते꣣ । प꣡न्थाः꣢꣯ । अ꣣धः꣢ । दि꣣वः꣢ । ये꣡भिः꣢꣯ । व्य꣢श्वम् । वि । अ꣣श्वम् । ऐ꣡र꣢꣯यः । उ꣣त꣢ । श्रो꣣षन्तु । नः । भु꣡वः꣢꣯ ॥१७२॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 172 | (कौथोम) 2 » 2 » 3 » 8 | (रानायाणीय) 2 » 6 » 8


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में यह विषय वर्णित है कि सब प्रजाएँ आकाशमार्गों को, पृथिव्यादिलोकों के भ्रमण की विद्या को और विमानादि की विद्या को भली-भाँति जानें।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे इन्द्र ! लोकलोकान्तरों के व्यवस्थापक परमेश्वर ! (ये) जो (ते) आपके रचे हुए (पन्थाः) मार्ग (दिवः) द्युलोक के (अधः) नीचे, अन्तरिक्ष में हैं (येभिः) जिनसे (व्यश्वम्) बिना घोड़ों के चलनेवाले पृथिवी, चन्द्र, मंगल, बुध आदि ग्रहोपग्रहसमूह को (ऐरयः) आप चलाते हो, उन मार्गों को (नः) हमारी (भुवः) भूलोकवासी प्रजाएँ भी (श्रोषन्तु) सुनें, और सुनकर जानें ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे इन्द्र राजन् ! (ये) जो (ते) आपके निर्धारित (पन्थाः) आकाश-मार्ग (दिवः) द्युलोक से (अधः) नीचे अर्थात् भूमि, समुद्र और अन्तरिक्ष में हैं, (येभिः) जिन (व्यश्वम्) बिना घोड़ों से चलनेवाले भूयान, जलयान और विमानों को (ऐरयः) आप चलवाते हैं, उन भूमि-समुद्र-आकाश के मार्गों के विषय में (नः) हमारी (भुवः उत) जन्मधारी राष्ट्रवासी प्रजाएँ भी (श्रोषन्तु) वैज्ञानिकों के मुख से सुनें, और सुनकर भूयान, जलयान, विमान, कृत्रिम उपग्रह आदि के बनाने और चलाने की विद्या को भली-भाँति जानें ॥८॥ अन्तरिक्ष मार्गों का वर्णन अथर्ववेद के एक मन्त्र में इस प्रकार है—जो विद्वान् लोगों के यात्रा करने योग्य बहुत से मार्ग द्युलोक और पृथिवीलोक के मध्य में बने हुए हैं, वे मुझे सुलभ हों, जिससे मैं उनसे यात्रा करके विदेशों में दूध-घी बेचकर धन इकट्ठा करके लाऊँ’’, (अथ० ३।१५।२)। समुद्र और अन्तरिक्ष में चलनेवाले यानों का वर्णन भी वेद में बहुत स्थलों पर मिलता है, जैसे हे ब्रह्मचर्य द्वारा परिपुष्ट युवक ! जो तेरे लिए सोने जैसी उज्ज्वल नौकाएँ अर्थात् नौका जैसी आकृतिवाले जलपोत और विमान समुद्र में और अन्तरिक्ष में चलते हैं, उनके द्वारा यात्रा करके तू सूर्यपुत्री उषा के तुल्य ब्रह्मचारिणी कन्या को विवाह द्वारा प्राप्त करने के लिए जाता है’’ (ऋ० ६।५८।३)। बिना घोड़ों के चलनेवाले वेगवान् यान का वर्णन वेद में अन्यत्र भी है, यथा—एक तीन पहियोंवाला रथ है, जिसमें न घोड़े जुते हैं, न लगामें हैं, जो बड़ा प्रशंसनीय है और जो आकाश में किसी लोक की परिक्रमा करता है (ऋ० ४।३६।१) ॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर अन्तरिक्ष-मार्ग में सूर्य को और भूमण्डल-चन्द्रमा-मंगल-बुध-बृहस्पति-शुक्र-शनि आदि ग्रहोपग्रहों को जैसा चाहिए, वैसा उनकी धुरी पर या उनकी अपनी-अपनी कक्षाओं में संचालित करता है, और राष्ट्र का कुशल राजा भूयान, जलयान, विमान, कृत्रिम उपग्रह आदिकों को कुशल वैज्ञानिकों के द्वारा चलवाता है। तद्विषयक सारी विद्या राष्ट्रवासियों को पढ़नी-पढ़ानी और प्रयोग करनी चाहिए ॥८॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ सर्वाः प्रजा अन्तरिक्षमार्गान् पृथिव्यादिलोकभ्रमणविद्यां विमानादिविद्यां च सम्यग् जानन्त्वित्याह।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—परमात्मपरः। हे इन्द्र लोकलोकान्तरव्यस्थापक परमेश्वर ! (ये ते) तव, त्वद्रचिताः (पन्थाः२) मार्गाः (दिवः) द्युलोकात् (अधः) अधस्तात्, अन्तरिक्षे सन्ति, (येभिः) यैः (व्यश्वम्३) विगताश्वं पृथिवीचन्द्रमंगलबुधादिकं ग्रहोपग्रहजातम् (ऐरयः) चालयसि। ईर क्षेपे, चुरादिः, लङ्। तान् पथः (नः) अस्माकम् (भुवः उत) भूलोकवासिन्यः प्रजा अपि (श्रोषन्तु) शृण्वन्तु, श्रुत्वा च विदाङ्कुर्वन्तु। श्रुधातोर्लोटि व्यत्ययेन शपि, सिब्बहुलं लेटि अ० ३।१।३४ इति बहुलवचनात् सिबागमः ॥ अथ द्वितीयः—राजपरः। हे इन्द्र राजन् ! (ये ते) तव, त्वन्निर्धारिताः (पन्थाः) आकाशमार्गाः (दिवः) द्युलोकात् (अधः) अधस्तात्, अन्तरिक्षे भुवि च सन्ति, (येभिः) यैः भूसमुद्राकाशमार्गैः (व्यश्वम्) विगताश्वं भूयानजलयानविमानकृत्रिमोपग्रहादिकम् (ऐरयः) प्रेरयसि, तान् भूमिसमुद्राकाशमार्गान् (नः) अस्माकम् (भुवः उत) भवन्तीति भुवः जन्मधारिण्यः राष्ट्रवासिन्यः प्रजाः अपि (श्रोषन्तु) वैज्ञानिकेभ्यः सकाशात् शृण्वन्तु, श्रुत्वा च भूयानजलयानविमानकृत्रिमोपग्रहादिनिर्माणचालनविद्यां सम्यग् विदन्तु ॥८॥ अन्तरिक्षमार्गाणां वर्णनमस्मिन्नाथर्वणे मन्त्रे द्रष्टव्यम्—ये पन्था॑नो ब॒हवो॑ देव॒याना॑ अन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वी सं॒चर॑न्ति। ते मा॑ जुषन्तां॒ पय॑सा घृ॒तेन॒ यथा॑ क्री॒त्वा धन॑मा॒हरा॑णि ॥ अथ० ३।१५।२। समुद्रयानानामन्तरिक्षयानानां चापि वर्णनं वेदे बहुशः प्राप्यते। यथा, “यास्ते॑ पू॒षन्नावो॑ अ॒न्तः स॑मु॒द्रे हि॑र॒ण्ययी॑र॒न्तरि॑क्षे॒ चर॑न्ति। ताभि॑र्यासि दू॒त्यां सूर्य्य॑स्य॒ कामे॑न कृतः॒ श्रव॑ इ॒च्छमा॑नः ॥” ऋ० ६।५८।३ इति। विगताश्वयानवर्णनं वेदेऽन्यत्रापि श्रुतम्। यथा, अ॒न॒श्वो जा॒तो अ॑नभी॒शुरु॒क्थ्यो॒३रथ॑स्त्रिच॒क्रः परि॑ वर्त॒ते रजः॑ ॥ ऋ० ४।३६।१ इति ॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥८॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वरोऽन्तरिक्षमार्गे सूर्यं भूमण्डल-चन्द्र-मंगल-बुध-गुरु-शुक्र-शन्यादींश्च ग्रहोपग्रहान् यथायथं स्वधुरि स्वकक्षासु वा संचालयति, राष्ट्रस्य कुशलो राजा च भूयानजलयानविमानकृत्रिमोपग्रहादींश्च कुशलैर्वैज्ञानिकैश्चालयति। तद्विषयिणी सर्वापि विद्या राष्ट्रवासिभिरध्येतव्या प्रयोक्तव्या च ॥८॥

टिप्पणी: १. अथ० ७।५५।१। ये ते पन्थानोऽव दिवो येभिर्विश्वमैरयः। तेभिः सुम्नया धेहि नो वसो। इति पाठः। ऋषिः भृगुः, छन्दः विराट् परोष्णिक्। २. वेदेषु पथिन् शब्दस्य प्रथमाबहुवचने पन्थाः पन्थानः, द्वितीयैकवचने च पन्थाम्, पन्थानम् इति वैकल्पिकानि रूपाणि प्रायशः प्रयुक्तानि। ३. व्यश्वम् वेगिताश्वं शीघ्रमित्यर्थः ऐरयः पूर्वकालमपि आगतवानसि—इति वि०। यैः पथिभिः व्यश्वम् ऋजुकम् ऐरयः प्रापयः दिवम्—इति भ०। सायणस्तु विश्वम् इति पाठं मत्वा विश्वं सर्वं जगत् ऐरयः प्राप्तवानसि—इति व्याचष्टे।