त꣡ꣳ हि꣢न्वन्ति मद꣣च्यु꣢त꣣ꣳ ह꣡रिं꣢ न꣣दी꣡षु꣢ वा꣣जि꣡न꣢म् । इ꣢न्दु꣣मि꣡न्द्रा꣢य मत्स꣣र꣢म् ॥१७१७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)तꣳ हिन्वन्ति मदच्युतꣳ हरिं नदीषु वाजिनम् । इन्दुमिन्द्राय मत्सरम् ॥१७१७॥
त꣢म् । हि꣣न्वन्ति । मदच्यु꣡त꣢म् । म꣣द । च्यु꣡त꣢꣯म् । ह꣡रि꣢꣯म् । न꣣दी꣡षु꣢ । वा꣣जि꣡न꣢म् । इ꣡न्दु꣢꣯म् । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । म꣣त्सर꣢म् ॥१७१७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में उपासक लोग क्या करते हैं, यह कहा गया है।
प्रबोध को प्राप्त जागरूक उपासक लोग (मदच्युतम्) उत्साहवर्षी, (हरिम्) पापहर्ता, (वाजिनम्) बलवान् (मत्सरम्) तृप्तिप्रद (तम्) उस अद्भुत (इन्दुम्) ब्रह्मानन्द-रस को (नदीषु) धाराओं के रूप में (इन्द्राय) जीवात्मा के लिए (हिन्वन्ति) प्रेरित करते हैं ॥४॥
जो लोग परमात्मा की उपासना द्वारा ब्रह्मानन्द की धाराओं से अपने आत्मा को तृप्त करते हैं, वे धन्य हो जाते हैं ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथोपासकाः किं कुर्वन्तीत्याह।
प्राप्तप्रबोधा जागरूका उपासका जनाः (मदच्युतम्) उत्साहस्राविणम्, (हरिम्) पापहर्तारम्, (वाजिनम्) बलवन्तम्, (मत्सरम्) तृप्तिप्रदम्, (तम्) अद्भुतम् (इन्दुम्) ब्रह्मानन्दरसम् (नदीषु) धारासु (इन्द्राय) जीवात्मने (हिन्वन्ति) प्रेरयन्ति ॥४॥
ये जनाः परमात्मोपासनया ब्रह्मानन्दधाराभिः स्वात्मानं तर्पयन्ति ते धन्या जायन्ते ॥४॥