अ꣣या꣡ नि꣢ज꣣घ्नि꣡रोज꣢꣯सा रथस꣣ङ्गे꣡ धने꣢꣯ हि꣣ते꣢ । स्त꣢वा꣣ अ꣡बि꣢꣯भ्युषा हृ꣣दा꣢ ॥१७१५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अया निजघ्निरोजसा रथसङ्गे धने हिते । स्तवा अबिभ्युषा हृदा ॥१७१५॥
अ꣣या꣢ । नि꣣जघ्निः꣢ । नि꣣ । जघ्निः꣢ । ओ꣡ज꣢꣯सा । र꣣थसङ्गे꣢ । र꣣थ । सङ्गे꣢ । ध꣡ने꣢꣯ । हि꣣ते꣢ । स्त꣡वै꣢꣯ । अ꣡बि꣢꣯भ्युषा । अ । बि꣣भ्युषा । हृदा꣢ ॥१७१५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा की स्तुति की गयी है।
हे पवमान सोम ! हे पवित्रतादायक सर्वान्तर्यामी जगदीश ! आप (अया) इस (ओजसा) बल से (निजघ्निः) काम-क्रोध आदि शत्रुओं को विनष्ट करनेवाले हो। (रथसङ्गे) मानव-देह रूप रथ की प्राप्ति होने पर (धने हिते) दिव्य ऐश्वर्य को पाने के लिए, मैं (अबिभ्युषा) निर्भय (हृदा) हृदय से, (स्तवै) आपकी स्तुति करता हूँ ॥२॥
हार्दिक श्रद्धा से स्तुति किया गया जगदीश्वर स्तोता को आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं को विनष्ट करने के लिए बल प्रदान करके उसका उपकार करता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मानं स्तौति।
हे पवमान सोम ! हे पवित्रदायक सर्वान्तर्यामिन् जगदीश ! त्वम् (अया) अनेन (ओजसा) बलेन (निजघ्निः) कामक्रोधादीनां रिपूणां हन्ता असि। [निपूर्वाद् हन्तेः ‘आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च’ अ० ३।२।१७१ इत्यनेन किः प्रत्ययः, तस्य च लिड्वत्त्वाद् द्वित्वादिः।] (रथसङ्गे) मानवदेहरूपस्य रथस्य प्राप्तौ सत्याम् (धने हिते) दिव्यैश्वर्यस्य लाभाय, अङम् (अबिभ्युषा) निर्भयेन (हृदा) हृदयेन, त्वाम् (स्तवै) स्तौमि ॥२॥
हार्दिक्या श्रद्धया स्तुतो जगदीश्वरः स्तोत्रे सर्वानाभ्यन्तरान् बाह्यांश्च रिपून् विनाशयितुं बलं प्रदाय तमुपकुरुते ॥२॥