उ꣢त्ते꣣ शु꣡ष्मा꣢सो अस्थू꣣ र꣡क्षो꣢ भि꣣न्द꣡न्तो꣢ अद्रिवः । नु꣣द꣢स्व꣣ याः꣡ प꣢रि꣣स्पृ꣡धः꣢ ॥१७१४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)उत्ते शुष्मासो अस्थू रक्षो भिन्दन्तो अद्रिवः । नुदस्व याः परिस्पृधः ॥१७१४॥
उ꣢त् । ते꣣ । शु꣡ष्मा꣢꣯सः । अ꣣स्थुः । र꣡क्षः꣢꣯ । भि꣣न्द꣡न्तः꣢ । अ꣣द्रिवः । अ । द्रिवः । नुद꣡स्व꣢ । याः । प꣣रिस्पृ꣡धः꣢ । प꣣रि । स्पृ꣡धः꣢꣯ ॥१७१४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में स्तुतिपूर्वक परमेश्वर से प्रार्थना की गयी है।
हे (अद्रिवः) किसी से विदीर्ण न किये जा सकने योग्य पवमान सोम अर्थात् पवित्रतादायक सद्गुणकर्मप्रेरक जगदीश ! (ते) आपके (शुष्मासः) बल (रक्षः) काम, क्रोध, आदि छहों रिपुओं को और व्याधि, स्त्यान, संशय आदि योग-मार्ग के विघ्नों को (भिन्दन्तः) तोड़ते-फोड़ते हुए (अस्थुः) दृढ़ता से स्थित रहते हैं। (याः परिस्पृधः) जो स्पर्धाशील आन्तरिक वा बाह्य शत्रु-सेनाएँ हैं उन्हें आप (नुदस्व) परे खदेड़ दो ॥१॥
परमेश्वर की आराधना से मनुष्य सब आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं को जीतने के लिए अपार बल, साहस और उद्बोधन प्राप्त करता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादौ स्तुतिपूर्वकं परमेशः प्रार्थ्यते।
हे (अद्रिवः) न केनापि दीर्यते विनाश्यते यः तादृश पवमान सोम पवित्रतादायक सद्गुणकर्मप्रेरक जगदीश ! (ते) तव (शुष्मासः) बलानि (रक्षः) कामक्रोधादिकं षड्रिपुवर्गं व्याधिस्त्यानसंशयादिकं विघ्नसमूहं वा (भिन्दन्तः) विदारयन्तः (अस्थुः) दृढं तिष्ठन्ति। (याः परिस्पृधः) याः स्पर्धाशीलाः आभ्यन्तर्यो बाह्या वा शत्रुसेनाः सन्ति ताः, त्वम् (नुदस्व) विबाधस्व ॥१॥
परमेश्वराराधनेन मनुष्यः सर्वानान्तरान् बाह्यांश्च रिपून् विजेतुमपारं बलं साहसमुद्बोधनं च प्राप्नोति ॥१॥