स꣡ नो꣢ मित्रमह꣣स्त्व꣡मग्ने꣢꣯ शु꣣क्रे꣡ण꣢ शो꣣चि꣡षा꣢ । दे꣣वै꣡रा स꣢꣯त्सि ब꣣र्हि꣡षि꣢ ॥१७१३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)स नो मित्रमहस्त्वमग्ने शुक्रेण शोचिषा । देवैरा सत्सि बर्हिषि ॥१७१३॥
सः꣢ । नः꣣ । मित्रमहः । मित्र । महः । त्व꣢म् । अ꣡ग्ने꣢꣯ । शु꣣क्रे꣡ण꣢ । शो꣣चि꣡षा꣢ । दे꣣वैः꣢ । आ । स꣣त्सि । बर्हि꣡षि꣢ ॥१७१३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं।
(मित्रमहः) जिसका तेज हमारा मित्र बनता है ऐसे, हे (अग्ने) अग्रनायक परमेश ! (सः) वह (नः) हमारे सखा (त्वम्) आप जगदीश (शुक्रेण) पवित्र (शोचिषा) ज्योति के साथ और (देवैः) दिव्य गुणों के साथ (बर्हिषि) हमारे हृदयान्तरिक्ष में (आ सत्सि) आकर बैठो ॥३॥
परमात्मा की उपासना से मनुष्य प्रकाश को और दिव्य गुणों को प्राप्त कर सकते हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमेश्वरं प्रार्थयते।
(मित्रमहः) मित्रं मित्रभूतं महः तेजो यस्य तादृश, हे (अग्ने) अग्रनायक परमेश ! (सः) असौ (नः) अस्मत्सखा (त्वम्) जगदीश्वरः (शुक्रेण) पवित्रेण (शोचिषा) ज्योतिषा (देवैः) दिव्यगुणैश्च सह (बर्हिषि) अस्माकं हृदयान्तरिक्षे (आ सत्सि) आसीद ॥३॥
परमात्मोपासनया जना दिव्यं पवित्रं प्रकाशं दिव्यगुणांश्च प्राप्तुं शक्नुवन्ति ॥३॥