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देवता: अग्निः ऋषि: विरूप आङ्गिरसः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

अ꣣ग्निः꣢ प्र꣣त्ने꣢न꣣ ज꣡न्म꣢ना꣣ शु꣡म्भा꣢नस्त꣣न्वा३ꣳ स्वा꣢म् । क꣣वि꣡र्विप्रे꣢꣯ण वावृधे ॥१७११॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अग्निः प्रत्नेन जन्मना शुम्भानस्तन्वा३ꣳ स्वाम् । कविर्विप्रेण वावृधे ॥१७११॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣣ग्निः꣢ । प्र꣣त्ने꣡न꣢ । ज꣡न्म꣢꣯ना । शु꣡म्भा꣢꣯नः । त꣣न्व꣢म् । स्वाम् । क꣣विः꣢ । वि꣡प्रे꣢꣯ण । वि । प्रे꣣ण । वावृधे ॥१७११॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1711 | (कौथोम) 8 » 3 » 1 » 1 | (रानायाणीय) 19 » 1 » 1 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम मन्त्र में अग्नि नाम से जीवात्मा का विषय कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(कविः) मेधावी, क्रान्तद्रष्टा जीवात्मा (प्रत्नेन जन्मना) पुरातन जन्म से अर्थात् पूर्व जन्म में किये हुए कर्मों के संस्कारवश (स्वाम्) अपने इस जन्म में प्राप्त (तन्वम्) शरीर को (शुम्भानः) सुशोभित करता हुआ (विप्रेण) विशेषतया ज्ञान से पूर्ण करनेवाले आचार्य के द्वारा (वावृधे) उन्नति प्राप्त करता है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

पूर्व जन्म में किये हुए कर्मों का फल भोगने के लिए और नवीन कर्म करने के लिए जीव मानव-जन्म प्राप्त करता है। माता के गर्भ से उत्पन्न होकर, माता-पिता से यथायोग्य पालित और शिक्षित हो, गुरुकुल में प्रवेश पाकर, आचार्य से विद्या ग्रहण कर, कर्तव्य-अकर्तव्य जान कर, सत्कर्म करके वह अभ्युदय और निःश्रेयस प्राप्त कर सकता है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्रादावग्निनाम्ना जीवात्मविषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(कविः) मेधावी क्रान्तदर्शनो जीवात्मा (प्रत्नेन जन्मना) पूर्वेण जन्मना, पूर्वजन्मकृतकर्मसंस्कारवशादित्यर्थः (स्वाम्) स्वकीयाम् इहजन्मप्राप्ताम् (तन्वम्) तनूम् (शुम्भानः) सुशोभयन् (विप्रेण) विशेषेण प्राति ज्ञानेन पूरयतीति विप्रः आचार्यः तेन (वावृधे) वृद्धिं प्राप्नोति ॥१॥

भावार्थभाषाः -

पूर्वजन्मकृतकर्मफलभोगार्थं नूतनकर्मकरणार्थं च जीवो मानवं जन्म प्राप्नोति। मातुर्गर्भादुत्पन्नो मातापितृभ्यां यथायोग्यं पालितः शिक्षितश्च गुरुकुलं प्रविश्याचार्याद् गृहीतविद्यः कर्तव्याकर्तव्ये विज्ञाय सत्कर्माणि कृत्वाऽभ्युदयं निःश्रेयसं चाधिगन्तुं शक्नोति ॥१॥