अ꣣ग्निः꣢ प्रि꣣ये꣢षु꣣ धा꣡म꣢सु꣣ का꣡मो꣢ भू꣣त꣢स्य꣣ भ꣡व्य꣢स्य । स꣣म्रा꣢꣫डेको꣣ वि꣡रा꣢जति ॥१७१०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अग्निः प्रियेषु धामसु कामो भूतस्य भव्यस्य । सम्राडेको विराजति ॥१७१०॥
अ꣣ग्निः꣢ । प्रि꣣ये꣡षु꣢ । धा꣡म꣢सु । का꣡मः꣢꣯ । भू꣣त꣡स्य꣢ । भ꣡व्य꣢꣯स्य । स꣣म्रा꣢ट् । स꣣म् । रा꣢ट् । ए꣡कः꣢꣯ । वि । रा꣣जति ॥१७१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब परमात्मा के सम्राट् रूप का वर्णन करते हैं।
(भूतस्य) जो उत्पन्न हो चुका है, उसे और (भवस्य) जो भविष्य में उत्पन्न होता है, उसे (कामः) इच्छाशक्ति द्वारा पञ्चभूतों से रचनेवाला (अग्निः) अग्रनायक जगदीश्वर (प्रियेषु) प्रिय (धामसु) लोकों में (एकः) एक अद्वितीय (सम्राट्) चक्रवर्ती राजा होता हुआ (वि राजति) विशेष रूप से शोभा पा रहा है ॥३॥
एक परमेश्वर ही सब भूत, वर्तमान और भावी पदार्थों का शिल्पी तथा सब लोकों का चक्रवर्ती सम्राट् होता हुआ ब्रह्माण्ड की सब व्यवस्था का सञ्चालन करता है ॥३॥ इस खण्ड में भक्त्तिकाव्य, सूर्य-किरण, ब्रह्म-क्षत्र तथा जगदीश्वर के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ अठारहवें अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥ अठारहवाँ अध्याय समाप्त ॥ अष्टम प्रपाठक में द्वितीय अर्ध समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मनः सम्राट्त्वं वर्णयति।
(भूतस्य) उत्पन्नस्य (भव्यस्य) भाविनि काले उत्पत्स्यमानस्य च (कामः) कामयिता, इच्छाशक्त्या पञ्चभूतैः रचयिता (अग्निः) अग्रणीर्जगदीश्वरः (प्रियेषु) प्रीतिपात्रेषु (धामसु) लोकेषु (एकः) अद्वितीयः (सम्राट्) चक्रवर्ती राजा सन् (वि राजति) विशेषेण शोभते ॥३॥२
एकः परमेश्वर एव सर्वेषां भूतवर्तमानभव्यपदार्थानां शिल्पी सर्वेषां लोकानां चक्रवर्ती सम्राट् च सन् ब्रह्माण्डस्य सर्वां व्यवस्थां सञ्चालयति ॥३॥ अस्मिन् खण्डे भक्तिकाव्यस्य सूर्यकिरणानां ब्रह्मक्षत्रयोर्जगदीश्वरस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥