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देवता: अग्निः ऋषि: भरद्वाजो बार्हस्पत्यः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

उ꣡प꣢ च्छा꣣या꣡मि꣢व꣣ घृ꣢णे꣣र꣡ग꣢न्म꣣ श꣡र्म꣢ ते व꣣य꣢म् । अ꣢ग्ने꣣ हि꣡र꣢ण्यसन्दृशः ॥१७०६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

उप च्छायामिव घृणेरगन्म शर्म ते वयम् । अग्ने हिरण्यसन्दृशः ॥१७०६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ꣡प꣢꣯ । छा꣡या꣢म् । इ꣣व । घृ꣡णेः꣢꣯ । अ꣡ग꣢꣯न्म । श꣡र्म꣢꣯ । ते꣣ । वय꣢म् । अ꣡ग्ने꣢꣯ । हि꣡र꣢꣯ण्यसन्दृशः । हि꣡र꣢꣯ण्य । स꣣न्दृशः ॥१७०६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1706 | (कौथोम) 8 » 2 » 18 » 2 | (रानायाणीय) 18 » 4 » 3 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अग्ने) अग्रनायक, सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर ! (वयम्) हम आपके उपासक (हिरण्यसंदृशः) सोने के समान रमणीय (ते) आपकी (शर्म) शरण में (अगन्म) पहुँच गये हैं, (घृणेः) सूर्य के ताप से हटकर (छायाम् इव) जैसे छाया में पहुँचते हैं ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२

भावार्थभाषाः -

जैसे सूर्य की धूप से तपे हुए सिरवाला, पसीने से तर-बतर शरीरवाला, गर्मी से व्याकुल कोई मनुष्य विश्राम के लिए वृक्ष आदि की छाया का आश्रय लेता है, वैसे ही आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक विविध कष्टों से व्याकुल लोग विश्राम पाने के उद्देश्य से यदि परमात्मा की शरण में पहुँचते हैं, तो वे सब दुःखों से छूटकर अत्यन्त आनन्दवान् हो जाते हैं ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनः परमात्मानमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अग्ने) अग्रनायक जगदीश्वर ! (वयम्) तवोपासकाः (हिरण्यसन्दृशः) सुवर्णसदृशरमणीयस्य (ते) तव (शर्म) शरणम् (उप अगन्म) उपगताः स्मः, (घृणेः) सूर्यतापात् (छायामिव) यथा छायाम् उपगच्छन्ति तथा ॥२॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यथा सूर्यातापात् तप्तशिरस्कः स्विद्यद्गात्रः धर्माकुलः कश्चिद् विश्रामाय वृक्षादिच्छायामाश्रयते तथैवाध्यात्मिकाधिदैविकाधिभौतिकै- र्विविधैः कष्टैराकुला जना विश्रान्त्यै परमात्मशरणमुपगच्छन्ति चेत्तर्हि ते सर्वदुःखेभ्यो विमुक्ताः सन्तो नितरामानन्दिनो जायन्ते ॥२॥