प्र꣡ वा꣢मर्चन्त्यु꣣क्थि꣡नो꣢ नीथाविदो जरितारः । इन्द्राग्नी इष आ वृणे ॥१७०३
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्र वामर्चन्त्युक्थिनो नीथाविदो जरितारः । इन्द्राग्नी इष आ वृणे ॥१७०३
प्र꣢ । वा꣣म् । अर्चन्ति । उक्थि꣡नः꣢ । नी꣣थावि꣡दः꣢ । नी꣣थ । वि꣡दः꣢꣯ । ज꣣रिता꣡रः꣢ । इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नी꣢इति꣢ । इ꣡षः꣢꣯ । आ । वृ꣣णे ॥१७०३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
द्वितीय ऋचा उत्तरार्चिक में १५७५ क्रमाङ्क पर परमात्मा और जीवात्मा के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ ब्रह्म-क्षत्र का विषय वर्णित करते हैं।
हे (इन्द्राग्नी) ब्राह्मण-क्षत्रियो ! (उक्थिनः) गुणों के प्रशंसक, (नीथाविदः) नीतिज्ञ, (जरितारः) ज्ञानवृद्ध लोग (वाम्) तुम्हारी (प्र अर्चन्ति) प्रशंसा करते हैं। मैं तुमसे (इषः) अभीष्ट लाभों को (आवृणे) ग्रहण करता हूँ ॥२॥
मनुष्यों के चाहिए कि उत्कृष्ट ब्राह्मणों और क्षत्रियों को एकत्र करके राष्ट्र को उन्नत करें ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
द्वितीया ऋक् उत्तरार्चिके १५७५ क्रमाङ्के परमात्मजीवात्मविषये व्याख्यातपूर्वा। अत्र ब्रह्मक्षत्रविषय उच्यते।
हे इद्राग्नी ब्राह्मणक्षत्रियौ ! (उक्थिनः) गुणप्रशंसकाः, (नीथाविदः) नीतिवेत्तारः, (जरितारः) ज्ञानवृद्धाः जनाः (वाम्) युवाम् (प्र अर्चन्ति) प्रशंसन्ति। अहम् युवयोः (इषः) एष्टव्यान् लाभान् (आवृणे) स्वीकरोमि ॥२॥२
मनुष्यैरुत्कृष्टान् ब्राह्मणान् क्षत्रियांश्च संगृह्य राष्ट्रमुन्नेतव्यम् ॥२॥