प꣡व꣢माना असृक्षत꣣ सो꣡माः꣢ शु꣣क्रा꣢स꣣ इ꣡न्द꣢वः । अ꣣भि꣡ विश्वा꣢꣯नि꣣ का꣡व्या꣢ ॥१६९९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पवमाना असृक्षत सोमाः शुक्रास इन्दवः । अभि विश्वानि काव्या ॥१६९९॥
प꣡व꣢꣯मानाः । अ꣣सृक्षत । सो꣡माः꣢꣯ । शु꣣क्रा꣡सः꣢ । इ꣡न्द꣢꣯वः । अ꣣भि꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯नि । का꣡व्या꣢꣯ ॥१६९९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में कविकर्म का वर्णन है।
(पवमानाः) स्वयं को तथा दूसरों को पवित्र करते हुए, (शुक्रासः)तेजस्वी, (इन्दवः) अपने काव्य-रस से सहृदयों को भिगोनेवाले(सोमाः) शान्त विद्वान् कविजन ही (विश्वानि काव्या) सब भक्तिरस के काव्यों की (असृक्षत) सर्जना करते हैं ॥१॥
भगवान् के उपासक कविजन ही भक्तिरस के काव्यों की सर्जना में समर्थ होते हैं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादौ कविकर्म वर्ण्यते।
(पवमानाः) स्वात्मानम् इतरांश्च पुनानाः, (शुक्रासः) तेजस्विनः, (इन्दवः) स्वकीयेन काव्यरसेन सहृदयानां क्लेदकाः (सोमाः) शान्ताः विद्वांसः कविजनाः (विश्वानि काव्या) विविधानि भक्तिरसकाव्यानि (असृक्षत) सृजन्ति ॥१॥
भगवदुपासकाः कविजना एव भक्तिरसकाव्यानि स्रष्टुं प्रभवन्ति ॥१॥