इ꣡न्द्रा꣢ग्नी तवि꣣षा꣡णि꣢ वां स꣣ध꣡स्था꣢नि꣣ प्र꣡याँ꣢सि च । यु꣣वो꣢र꣣प्तू꣣र्यं꣢ हि꣣त꣢म् ॥१६९५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्द्राग्नी तविषाणि वां सधस्थानि प्रयाँसि च । युवोरप्तूर्यं हितम् ॥१६९५॥
इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । त꣣विषा꣡णि꣢ । वा꣣म् । स꣣ध꣡स्था꣢नि । स꣣ध꣢ । स्था꣣नि । प्र꣡या꣢꣯ꣳसि । च꣣ । युवोः꣢ । अ꣣प्तू꣡र्य꣢म् । अ꣣प् । तू꣡र्य꣢꣯म् । हि꣣त꣢म् ॥१६९५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तृतीय ऋचा उत्तरार्चिक में १५७८ क्रमाङ्क पर जीवात्मा और परमात्मा के विषय में व्याख्यात की गयी थी। यहाँ आत्मा और मन का विषय कहते हैं।
हे (इन्द्राग्नी) आत्मा और मन ! (वाम्) तुम दोनों के (तविषाणि) बल (प्रयांसि च) और प्रयत्न (सधस्थानि) साथ मिलकर होते हैं।(युवोः) तुम दोनों का (अप्तूर्यम्) कर्मों की शीघ्रता का गुण(हितम्) हितकर होता है ॥३॥
मनुष्य का आत्मा और मन परस्पर मिलकर ही ज्ञान एकत्र करके, पुरुषार्थ करके बल तथा कर्मों में सिद्धि प्राप्त करते हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तृतीया ऋगुत्तरार्चिके १५७८ क्रमाङ्के जीवात्मपरमात्मनोर्विषये व्याख्याता। अत्रात्ममनसोर्विषय उच्यते।
हे (इन्द्राग्नी) आत्ममनसी ! (वाम्) युवयोः (तविषाणि)बलानि (प्रयांसि च) प्रयत्नाश्च (सधस्थानि) सहकृतानि भवन्ति। (युवोः) युवयोः (अप्तूर्यम्) कर्मणि त्वरितत्वम्(हितम्) हितकरं जायते ॥३॥२
मनुष्यस्यात्मा मनश्च परस्परं मिलित्वैव ज्ञानं संचित्य पुरुषार्थं कृत्वा बलं कर्मसु सिद्धिं च प्राप्नुतः ॥३॥
 
                  