इ꣡न्द्रा꣢ग्नी रोच꣣ना꣢ दि꣣वः꣢꣫ परि꣣ वा꣡जे꣢षु भूषथः । त꣡द्वां꣢ चेति꣣ प्र꣢ वी꣣꣬र्य꣢꣯म् ॥१६९३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्द्राग्नी रोचना दिवः परि वाजेषु भूषथः । तद्वां चेति प्र वीर्यम् ॥१६९३॥
इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । रो꣣चना꣢ । दि꣡वः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । वा꣡जे꣢꣯षु । भू꣣षथः । त꣢त् । वा꣣म् । चेति । प्र꣢ । वी꣣र्यम्꣢ ॥१६९३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में आत्मा और मन का विषय कहा जा रहा है।
हे (इन्द्राग्नी) आत्मा और मन ! (युवाम्) तुम दोनों (वाजेषु) देवासुरसङ्ग्रामों में (दिवः) प्रकाशक परमात्मा की (रोचना)ज्योति को (परि भूषथः) चारों ओर से प्राप्त करते हो। (तत्) वह प्रसिद्ध (वाम्) तुम दोनों का (वीर्यम्) बल (प्र चेति) सब के द्वारा प्रकृष्टरूप से जाना जाता है ॥१॥
मनुष्य के आत्मा और मन को योग्य है कि आन्तरिक देवासुरसङ्ग्रामों में सब आसुरी भावों को पराजित करके परमात्मा की प्राप्ति के लक्ष्य तक पहुँचें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादावात्मनो मनसश्च विषय उच्यते।
हे (इन्द्राग्नी) आत्ममनसी ! युवाम् (वाजेषु) देवासुरसंग्रामेषु(दिवः) प्रकाशकस्य परमात्मनः (रोचना) रोचनाम् दीप्तिम्(परि भूषथः) परिप्राप्नुथः। [भू प्राप्तौ, लेटि रूपम्। रोचना इत्यत्र‘सुपां सुलुक्०’ अ० ७।१।३९ इति द्वितीयैकवचनस्य लुक्।] (तत्) प्रसिद्धम् (वाम्) युवयोः (वीर्यम्) बलम् (प्र चेति) सर्वैः प्रकृष्टतया ज्ञायते ॥१॥२
आभ्यन्तरे देवासुरसंग्रामे सर्वानासुरान् भावान् पराजित्य मनुष्यस्यात्मा मनश्च परमात्मप्राप्तिलक्ष्यं लब्धुमर्हतः ॥१॥