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वृ꣡क꣢श्चिदस्य वार꣣ण꣡ उ꣢रा꣣म꣢थि꣣रा꣢ व꣣यु꣡ने꣢षु भूषति । से꣢꣫मं न꣣ स्तो꣡मं꣢ जुजुषा꣣ण꣢꣫ आ ग꣣ही꣢न्द्र꣣ प्र꣢ चि꣣त्र꣡या꣢ धि꣣या꣢ ॥१६९२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

वृकश्चिदस्य वारण उरामथिरा वयुनेषु भूषति । सेमं न स्तोमं जुजुषाण आ गहीन्द्र प्र चित्रया धिया ॥१६९२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वृ꣡कः꣢꣯ । चि꣣त् । अस्य । वारणः꣢ । उ꣣राम꣡थिः꣢ । उ꣣रा । म꣡थिः꣢꣯ । आ । व꣣यु꣡ने꣢षु । भू꣣षति । सा꣢ । इ꣣म꣢म् । नः꣣ । स्तो꣡म꣢꣯म् । जु꣣जुषाणः꣢ । आ । ग꣣हि । इ꣡न्द्र꣢꣯ । प्र । चि꣣त्र꣡या । धि꣣या꣢ ॥१६९२॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1692 | (कौथोम) 8 » 2 » 13 » 2 | (रानायाणीय) 18 » 3 » 4 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा को बुलाया जा रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(वारणः) रोग आदि के निवारक, (उरामथिः) फैले हुए अँधेरे को नष्ट करनेवाले (वृकःचित्) सूर्य के समान (अस्य) इन आप जगदीश्वर का (वारणः) दुःख आदि का निवारक प्रताप (वयुनेषु) आपके कर्मों में (आ भूषति) भूषण-रूप है। (सः) वह आप, हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (नः) हमारे (इमम्) इस (स्तोमम्) स्तोत्र को (जुजुषाणः) सेवन करते हुए (चित्रया धिया) अद्भुत प्रज्ञा वा क्रिया के साथ (प्र आ गहि) भली-भाँति हमारे पास आओ ॥२॥ यहाँ श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जिस जगदीश्वर का प्रताप सूर्य के प्रकाश के समान सर्वत्र फैल रहा है, उसकी सबको श्रद्धा के साथ उपासना करनी चाहिए ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मानमाह्वयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

(वारणः) रोगादीनां निवारकः (उरामथिः) विस्तीर्णतमोनाशकः (वृकः चित्) सूर्यः इव (अस्य) इन्द्रस्य जगदीश्वरस्य तव (वारणः) दुःखादीनां निवारकः प्रतापः (वयुनेषु) तव कर्मसु (आ भूषति) भूषणभूतोऽस्ति। [आदित्योऽपि वृक उच्यते, यदावृङ्क्ते। निरु० ५।२१। ऊर्णुते आच्छादयतीति उरा। यद्वा, ओरति सर्वत्र व्याप्नोतीति उरा, उर गतौ भ्वादिः। चिदित्युपमार्थको निरुक्ते व्याख्यातः। १।४, ३।१६।] (सः) असौ त्वम् हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (नः) अस्माकम् (इमम्) एतम् (स्तोमम्) स्तोत्रम् (जुजुषाणः) सेवमानः (चित्रया धिया) अद्भुतया प्रज्ञया क्रियया वा सह (प्र आ गहि) प्रकर्षेण अस्मान् आगच्छ। [संहितायां ‘सेमं’ इत्यत्र ‘सोऽचि लोपे चेत् पादपूरणम्’। अ० ६।१।१३४ इत्यनेन ‘सः’ इत्यस्य सोर्लोपे सन्धिः] ॥२॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यस्य जगदीश्वरस्य प्रतापः सूर्य-प्रकाश इव सर्वत्र प्रसरति स सर्वैः श्रद्धयोपासनीयः ॥२॥