कस्तमि꣢꣯न्द्र त्वावस꣣वा मर्त्यो꣢꣯ दधर्षति । श्र꣣द्धा हि ते꣢꣯ मघव꣣न् पा꣡र्ये꣢ दि꣣वि꣢ वा꣣जी वाजं꣢꣯ सिषासति ॥१६८२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)कस्तमिन्द्र त्वावसवा मर्त्यो दधर्षति । श्रद्धा हि ते मघवन् पार्ये दिवि वाजी वाजं सिषासति ॥१६८२॥
कः꣢ । तम् । इ꣣न्द्र । त्वावसो । त्वा । वसो । आ꣢ । म꣡र्त्यः꣢꣯ । द꣣धर्षति । श्रद्धा꣢ । श्र꣣त् । धा꣢ । हि । ते꣣ । मघवन् । पा꣡र्ये꣢꣯ । दि꣣वि꣢ । वा꣣जी꣢ । वा꣡ज꣢꣯म् । सि꣣षासति ॥१६८२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में २८० क्रमाङ्क पर पहले व्याख्या हो चुकी है। यहाँ श्रद्धा का महत्त्व प्रतिपादित किया जा रहा है।
(त्वावसो) तुम स्वयं ही जिस के धन हो, ऐसे (इन्द्र) हे जगदीश! (तम्) आपमें श्रद्धा रखनेवाले आपके भक्त को (कः मर्त्यः)भला कौन मनुष्य (आ दधर्षति) पराजित कर सकता है, अर्थात् कोई नहीं। हे (मघवन्) ऐश्वर्यशालिन् ! (ते) आपमें(श्रद्धा) श्रद्धावान् मनुष्य (हि) निश्चय ही (पार्ये दिवि) पार करने योग्य सम्पूर्ण दिन में (वाजी) बल, विज्ञान, अन्न, धन आदि से युक्त होता हुआ (वाजम्) बल, विज्ञान, अन्न, धन आदि (सिषासति) अन्यों को बाँटना चाहता है ॥१॥
वही वस्तुतः परमात्मा का श्रद्धालु होता है, जो उसकी प्रेरणा से श्रेष्ठ कर्म करे और उसकी कृपा से प्राप्त ऐश्वर्य से दीनों की सहायता करे ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २८० क्रमाङ्के व्याख्यातपूर्वा। अत्र श्रद्धाया महत्त्वं प्रतिपाद्यते।
(त्वावसो) त्वं स्वयमेव वसु यस्य तव तादृश (इन्द्र) हे जगदीश ! (तम्) त्वयि श्रद्धावन्तं जनम् (कः मर्त्यः) को मनुष्यः (आ दधर्षति) आ धर्षितुम् उत्सहते, न कोऽपीत्यर्थः। हे (मघवन्) ऐश्वर्यशालिन् (ते) त्वयि (श्रद्धा) श्रद्धाता (हि) खलु(पार्ये दिवि) पारयितव्ये सम्पूर्णे दिने (वाजी) बलविज्ञानान्नधनादिमान् सन् (वाजम्) बलविज्ञानान्नधनादिकम् (सिषासति) अन्येभ्यो दातुमिच्छति ॥१॥२
स एव वस्तुतः परमात्मनि श्रद्धावान् यस्तत्प्रेरणया सत्कर्माणि करोति तत्कृपया प्राप्तेनैश्वर्येण च दीनानां साहाय्यमाचरति ॥१॥