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इ꣡न्द्रा꣢य सोम꣣ पा꣡त꣢वे वृत्र꣣घ्ने꣡ परि꣢꣯ षिच्यसे । न꣡रे꣢ च꣣ द꣡क्षि꣢णावते वी꣣रा꣡य꣢ सदना꣣स꣡दे꣢ ॥१६७९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

इन्द्राय सोम पातवे वृत्रघ्ने परि षिच्यसे । नरे च दक्षिणावते वीराय सदनासदे ॥१६७९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ꣡न्द्रा꣢꣯य । सो꣣म । पा꣡त꣢꣯वे । वृ꣣त्रघ्ने꣡ । वृ꣣त्र । घ्ने꣣ । प꣡रि꣢꣯ । सि꣣च्यसे । न꣡रे꣢꣯ । च꣣ । द꣡क्षि꣢꣯णावते । वी꣣रा꣡य꣣ । स꣣दनास꣡दे꣢ । स꣣दन । स꣡दे꣢꣯ ॥१६७९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1679 | (कौथोम) 8 » 2 » 8 » 1 | (रानायाणीय) 18 » 2 » 4 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या उत्तरार्चिक में १३३१ क्रमाङ्क पर गुरु-शिष्य विषय में हो चुकी है। यहाँ परमात्मा की भक्ति का विषय वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) मेरे भक्तिरस ! तू (वृत्रघ्ने) पाप-विनाशक, (दक्षिणावते) दानी, (वीराय) काम आदि षड़् रिपुओं को विशेष रूप से कम्पायमान करनेवाले, (सदनासदे) हृदय-सदन में स्थित (नरे च) और नेतृत्व करनेवाले (इन्द्राय) जगदीश्वर के (पातवे) पान करने के लिए (परिषिच्यसे) प्रवाहित किया जा रहा है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मा के भक्त लोग पाप-कर्मों का परित्याग करके, प्रचुर ऐश्वर्य प्राप्त करके सब आन्तरिक और बाह्य विघ्नों को नष्ट करने में समर्थ हो जाते हैं ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् उत्तरार्चिके १३३१ क्रमाङ्के गुरुशिष्यविषये व्याख्याता अत्र परमात्मभक्तिविषय उच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) मदीय भक्तिरस ! त्वम् (वृत्रघ्ने) पापानां हन्त्रे, (दक्षिणावते) दानवते (वीराय) कामादिषड्रिपूणां विशेषेण प्रकम्पयित्रे, (सदनासदे) हृदयगृहस्थिताय, (नरे च) नेतरि च (इन्द्राय) जगदीश्वराय (पातवे) पातुम् (परिषिच्यसे) परिक्षार्यसे ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मभक्ता जनाः पापकर्माणि परित्यज्य विपुलमैश्वर्यं च प्राप्य सर्वानान्तरान् बाह्यांश्च विघ्नान् हन्तुं क्षमन्ते ॥१॥