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अ꣡तो꣢ दे꣣वा꣡ अ꣢वन्तु नो꣣ य꣢तो꣣ वि꣡ष्णु꣢र्विचक्र꣣मे꣢ । पृ꣣थिव्या꣢꣫ अधि꣣ सा꣡न꣢वि ॥१६७४॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे । पृथिव्या अधि सानवि ॥१६७४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡तः꣣ । दे꣣वाः꣢ । अ꣣वन्तु । नः । य꣡तः꣢꣯ । वि꣡ष्णुः꣢꣯ । वि꣣चक्रमे꣢ । वि꣣ । चक्रमे꣢ । पृ꣣थिव्याः꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । सा꣡न꣢꣯वि ॥१६७४॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1674 | (कौथोम) 8 » 2 » 5 » 6 | (रानायाणीय) 18 » 2 » 1 » 6


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में जगदीश्वर का शरीर में व्याप्त होना वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यतः) क्योंकि (विष्णुः) व्यापक जगदीश्वर (पृथिव्याः) पार्थिव शरीर के (सानवि अधि) उच्च प्रदेश मस्तिष्क में (विचक्रमे) व्याप्त है, (अतः) इसी कारण (देवाः) विद्वान्, जन, उसकी कृपा से मस्तिष्क द्वारा ज्ञान पाकर (नः) हमारी (अवन्तु) रक्षा करें ॥६॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर ही शरीर के मस्तिष्क आदि अङ्गों में स्थित हुआ उनके द्वारा सब ज्ञान-ग्रहण आदि करवाता है ॥६॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ जगदीश्वरस्य शरीरव्यापित्वमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यतः) यस्मात् (विष्णुः) व्यापको जगदीश्वरः (पृथिव्याः) पार्थिवायाः तन्वाः (सानवि अधि) उच्चप्रदेशे मस्तिष्के(विचक्रमे) व्याप्तोऽस्ति, (अतः) अस्मादेव कारणात् (देवाः) विद्वांसो जनास्तत्कृपया मस्तिष्कात् ज्ञानं प्राप्य (नः) अस्मान्(अवन्तु) रक्षन्तु ॥६॥२

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर एव शरीरस्य मस्तिष्कादिष्वङ्गेषु स्थितस्तैः सर्वं ज्ञानग्रहणादिकं कारयति ॥६॥