त꣡द्विष्णोः꣢꣯ पर꣣मं꣢ प꣣द꣡ꣳ सदा꣢꣯ पश्यन्ति सू꣣र꣡यः꣢ । दि꣣वी꣢व꣣ च꣢क्षु꣣रा꣡त꣢तम् ॥१६७२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)तद्विष्णोः परमं पदꣳ सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥१६७२॥
त꣢त् । वि꣡ष्णोः꣢꣯ । प꣣रम꣢म् । प꣣द꣢म् । स꣡दा꣢꣯ । प꣣श्यन्ति । सूर꣡यः꣢ । दि꣣वि꣢ । इ꣣व । च꣡क्षुः꣢꣯ । आ꣡त꣢꣯तम् । आ । त꣣तम् ॥१६७२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा के परमपद के साक्षात्कार का विषय है।
(विष्णोः) सर्वव्यापक जगदीश्वर के (तत्) उस प्रसिद्ध, (परमम्) अति उत्कृष्ट (पदम्) प्राप्त करने योग्य स्वरूप को (सूरयः) विद्वान् उपासक लोग (सदा) हमेशा (पश्यन्ति) वैसे ही स्पष्ट रूप में देखते हैं (दिवि इव) जैसे सूर्य के प्रकाश में (आततम्) फैली हुई वस्तु को (चक्षुः) आँख देखती है ॥४॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥४॥
भले ही स्थूल दृष्टिवाले लोगों को परमात्मा न दिखायी दे, परन्तु सूक्ष्म दृष्टिवाले विद्वान् स्तोता जन तो उसका वैसे ही साक्षात्कार करते हैं, जैसे सूर्य के प्रकाश में कोई मनुष्य किसी विशाल मूर्त पदार्थ को देखता है ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मपदसाक्षात्कारविषयमाह।
(विष्णोः) सर्वव्यापकस्य जगदीश्वरस्य (तत्) प्रसिद्धम्, (परमम्) अत्युत्कृष्टम् (पदम्) प्राप्तव्यं स्वरूपम् (सूरयः) विद्वांसः उपासकाः (सदा) सर्वदा (पश्यन्ति) तथैव स्पष्टतः साक्षात्कुर्वन्ति, (दिवि इव) सूर्यप्रकाशे यथा (आततम्) विस्तीर्णं पदार्थम् (चक्षुः) नेत्रं पश्यति ॥४॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥४॥
कामं स्थूलदृष्टयो जनाः परमात्मानं न पश्येयुः परं सूक्ष्मदृष्टयो विपश्चितः स्तोतारस्तु तथैव तं साक्षात्कुर्वन्ति यथा सूर्यप्रकाशे कश्चिज्जनश्चक्षुषा विशालं मूर्तद्रव्यं पश्यति ॥४॥