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देवता: विष्णुः ऋषि: मेधातिथिः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

वि꣢ष्णोः꣣ क꣡र्मा꣢णि पश्यत꣣ य꣡तो꣢ व्र꣣ता꣡नि꣢ पस्प꣣शे꣢ । इ꣡न्द्र꣢स्य꣣ यु꣢ज्यः꣣ स꣡खा꣢ ॥१६७१॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे । इन्द्रस्य युज्यः सखा ॥१६७१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि꣡ष्णोः꣢꣯ । क꣡र्मा꣢꣯णि । प꣣श्यत । य꣡तः꣢꣯ । व्र꣣ता꣡नि꣢ । प꣣स्पशे । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । यु꣡ज्यः꣢꣯ । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ ॥१६७१॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1671 | (कौथोम) 8 » 2 » 5 » 3 | (रानायाणीय) 18 » 2 » 1 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमेश्वर के महत्त्व का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(विष्णोः) सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर के (कर्माणि) जगत्प्रपञ्च की उत्पत्ति करना, व्यवस्था करना आदि कर्मों को (पश्यत) देखो, (यतः) क्योंकि उसने उन्हें करने के लिए (व्रतानि) व्रत(पस्पशे) ग्रहण किये हुए हैं। वह जगत्पति (इन्द्रस्य) जीवात्मा का (युज्यः) साथ रहनेवाला (सखा) मित्र है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

जैसे व्रती जगदीश्वर इस जगत् में महान् कर्मों को कर रहा है, वैसे ही उसका सखा जीव भी उससे बल पाकर बहुत से कार्य करने में समर्थ समर्थ होता है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमेश्वरस्य महत्त्वं वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

(विष्णोः) सर्वान्तर्यामिनो जगदीश्वरस्य (कर्माणि) जगत्प्रपञ्चसर्जनव्यवस्थापनादीनि कर्माणि, (पश्यत)अवलोकयत, (यतः) यस्मात् कारणात् स तानि कर्तुम्(व्रतानि) संकल्पान् (पस्पशे२) स्पृष्टवान्, गृहीतवान् अस्ति। स जगत्पतिः (इन्द्रस्य) जीवात्मनः (युज्यः) सहयोगी (सखा) सुहृत्, वर्तते इति शेषः ॥३॥३

भावार्थभाषाः -

यथा व्रती जगदीश्वरो जगत्यस्मिन् महान्ति कर्माणि करोति तथैव तत्सखा जीवोऽपि तस्माद् बलं प्राप्य बहुकार्यक्षमो जायते ॥३॥