न꣢ घा꣣ व꣢सु꣣र्नि꣡ य꣢मते दा꣣नं꣡ वाज꣢꣯स्य꣣ गो꣡म꣢तः । य꣢त्सी꣣मु꣢प꣣श्र꣢व꣣द्गि꣡रः꣢ ॥१६६७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)न घा वसुर्नि यमते दानं वाजस्य गोमतः । यत्सीमुपश्रवद्गिरः ॥१६६७॥
न꣢ । घ꣣ । व꣡सुः꣢ । नि । य꣣मते । दान꣢म् । वा꣡ज꣢꣯स्य । गो꣡म꣢꣯तः । यत् । सी꣣म् । उ꣡प꣢꣯ । श्र꣡व꣢꣯त् । गि꣡रः꣢꣯ ॥१६६७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा के दान का वर्णन है।
(वसुः) बसानेवाला इन्द्र परमेश्वर (गोमतः) अध्यात्म-प्रकाश से युक्त (वाजस्य) बल के (दानम्) दान को (न घ) कभी नहीं (नि यमते) रोकता है, (यत् सीम्) जब कि वह (गिरः) श्रद्धा से भरी हुई स्तुति-वाणियों को (उप श्रवत्) सुन लेता है ॥२॥
श्रद्धालुओं के श्रद्धा से सिंचे हुए, प्रेम से भरे स्तोत्रों से द्रवित होकर जगदीश्वर नये-नये आध्यात्मिक ऐश्वर्य के उपहार स्तोता की भेंट करता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मनो दानं वर्णयति।
(वसुः) वासयिता इन्द्रः परमेश्वरः (गोमतः) अध्यात्मप्रकाशयुक्तस्य (वाजस्य) बलस्य (दानम्) दत्तिम् (न घ) नैव (नियमते) नियच्छति, अवरुद्धं करोति, (यत् सीम्) यदा खलु, सः (गिरः) श्रद्धाभरिताः स्तुतिवाचः (उप श्रवत्) उपशृणोति ॥२॥२
श्रद्धालूनां श्रद्धासिक्तैः प्रेमभरितैः स्तोत्रैर्द्रवितो भूत्वा जगदीश्वरो नवान् नवान् अध्यात्मैश्वर्योपहारान् स्तोतुरुपायनीकरोति ॥२॥