ज꣡रा꣢बोध꣣ त꣡द्वि꣢विड्ढि वि꣣शे꣡वि꣢शे य꣣ज्ञि꣡या꣢य । स्तो꣡म꣢ꣳ रु꣣द्रा꣡य꣢ दृशी꣣क꣢म् ॥१६६३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)जराबोध तद्विविड्ढि विशेविशे यज्ञियाय । स्तोमꣳ रुद्राय दृशीकम् ॥१६६३॥
ज꣡रा꣢꣯बोध । ज꣡रा꣢꣯ । बो꣣ध । त꣢त् । वि꣣विड्ढि । विशे꣡वि꣢शे । वि꣣शे꣢ । वि꣣शे । यज्ञि꣡या꣢य । स्तो꣡म꣢꣯म् । रु꣢द्रा꣡य꣢ । दृ꣣शीक꣢म् ॥१६६३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में १५ क्रमाङ्क पर परमात्मा की स्तुति के विषय में की गयी थी। यहाँ भी वही विषय कहा जा रहा है।
हे (जराबोध) स्तुतिविज्ञ मानव ! तू (विशे विशे) प्रत्येक मनुष्य के हितार्थ (यज्ञियाय) पूजनीय (रुद्राय) दुःखहर्ता परमात्मा के लिए (तत्) उस उज्ज्वल (दृशीकम्) रमणीय(स्तोमम्) स्तोत्र को, गुण-गान को (विविड्ढि) कर ॥१॥
सब मनुष्यों को चाहिए कि जगदीश्वर का गुणगान करके यथाशक्ति उसके गुणों को अपने अन्दर धारण करने का प्रयत्न करें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १५ क्रमाङ्के परमात्मस्तुतिविषये व्याख्याता। अत्रापि स एव विषय उच्यते।
हे (जराबोध) स्तुतिविज्ञ मानव ! [जरां स्तुतिप्रकारं बुध्यते जानातीति जराबोधः तथाविध।] त्वम् (विशे विशे) मनुष्याय मनुष्याय, प्रतिमनुष्यहितार्थमित्यर्थः। (यज्ञियाय) पूजनीयाय(रुद्राय) दुःखद्रावयित्रे परमात्मने (तत्) उज्ज्वलम् (दृशीकम्) रमणीयम् (स्तोमम्) स्तोत्रम्, गुणकीर्तनम् (विविड्ढि) कुरु।[‘तद् विविड्ढि तत् कुरु’ इति निरुक्तम् १०।८] ॥१॥२
सर्वैर्जनैर्जगदीश्वरस्य गुणगानं कृत्वा यथाशक्ति तद्गुणान् स्वात्मनि विधातुं प्रयतनीयम् ॥१॥