अ꣡रं꣢ त इन्द्र कु꣣क्ष꣢ये꣣ सो꣡मो꣢ भवतु वृत्रहन् । अ꣢रं꣣ धा꣡म꣢भ्य꣣ इ꣡न्द꣢वः ॥१६६२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अरं त इन्द्र कुक्षये सोमो भवतु वृत्रहन् । अरं धामभ्य इन्दवः ॥१६६२॥
अ꣡र꣢꣯म् । ते꣣ । इन्द्र । कु꣡क्षये꣢ । सो꣡मः꣢꣯ । भ꣣वतु । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । अ꣡र꣢꣯म् । धा꣡म꣢꣯भ्यः । इ꣡न्द꣢꣯वः ॥१६६२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर जीवात्मा को ही कहा गया है।
हे (वृत्रहन्) विघ्नविनाशक (इन्द्र) जीवात्मन् ! (सोमः) ज्ञान-रस और आनन्द-रस (ते कुक्षये) तेरे पेट के लिए अर्थात् तेरे अपने लिए(अरम्) पर्याप्त (भवतु) होवे और (इन्दवः) सराबोर करनेवाले ज्ञान-रस और आनन्द-रस (धामभ्यः) अन्य धामों के लिए भी (अरम्) पर्याप्त होवें ॥३॥
स्वयं गुरुजनों से ज्ञान लेकर और जगदीश्वर की उपासना से आनन्द पाकर उस ज्ञान तथा उस आनन्द का प्रसार जन-जन में, घर-घर में और प्रत्येक समाज में करना चाहिए ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि जीवात्मानमेवाह।
हे (वृत्रहन्) विघ्नहन्तः (इन्द्र) जीवात्मन् ! (सोमः) ज्ञानरसः आनन्दरसश्च (ते कुक्षये) तव उदराय, तव स्वात्मनोऽर्थे (अरम्) पर्याप्तम् (भवतु) जायताम्। अपि च (इन्दवः) क्लेदकाः ते ज्ञानरसाः आनन्दरसाश्च (धामभ्यः) अन्येभ्योऽपि धामभ्यः (अरम्) पर्याप्तं जायन्ताम् ॥३॥
स्वयं गुरुजनेभ्यो ज्ञानं गृहीत्वा जगदीश्वरोपासनया चानन्दं सम्प्राप्य तज्ज्ञानस्य तदानन्दस्य च प्रसारो जने जने, गृहे गृहे, समाजे समाजे विधेयः ॥३॥