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आ꣡ त्वा꣢ विश꣣न्त्वि꣡न्द꣢वः समु꣣द्र꣡मि꣢व꣣ सि꣡न्ध꣢वः । न꣢꣫ त्वामि꣣न्द्रा꣡ति꣢ रिच्यते ॥१६६०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

आ त्वा विशन्त्विन्दवः समुद्रमिव सिन्धवः । न त्वामिन्द्राति रिच्यते ॥१६६०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ꣢ । त्वा꣣ । विशन्तु । इ꣡न्द꣢꣯वः । स꣣मुद्र꣢म् । स꣣म् । उद्र꣢म् । इ꣢व । सि꣡न्ध꣢꣯वः । न । त्वाम् । इ꣣न्द्र । अ꣡ति꣢꣯ । रि꣣च्यते ॥१६६०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1660 | (कौथोम) 8 » 2 » 2 » 1 | (रानायाणीय) 18 » 1 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में १९७ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में हो चुकी है। यहाँ जीवात्मा का विषय कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्र) जीवात्मन् ! (इन्दवः) आचार्य से प्राप्त ज्ञान-रस और परमात्मा से प्राप्त आनन्द-रस (त्वा) तुझमें (आ विशन्तु) प्रवेश करें, (समुद्रम् इव) समुद्र में जैसे (सिन्धवः) नदियाँ प्रवेश करती हैं। देह में कोई भी मन, प्राण आदि (त्वाम्) तुझ जीवात्मा से (न अतिरिच्यते) महत्ता में अधिक नहीं है ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जीवात्मा शरीर का सम्राट् है। मन, बुद्धि, प्राण, मस्तिष्क,हृदय आदि सब उसी के अनुशासन में है। वह यदि जागरूक है, तो सारे अभ्युदय या निःश्रेयस को वह प्राप्त कर सकता है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १९७ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्र जीवात्मविषय उच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्र) जीवात्मन् ! (इन्दवः) आचार्यसकाशात् प्राप्ता ज्ञानरसाः, परमात्मसकाशात् प्राप्ता आनन्दरसाश्च (त्वा) त्वाम् (आ विशन्तु) प्रविशन्तु, (समुद्रम् इव) उदधिं यथा (सिन्धवः) नद्यः प्रविशन्ति तद्वत्। देहे कश्चिदपि मनःप्राणादिः (त्वाम्) जीवात्मानम् (न अतिरिच्यते) न अतिशेते—त्वत्तोऽधिको न भवतीत्यर्थः ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जीवात्मा खलु देहस्य सम्राड् वर्तते। मनोबुद्धिप्राणमस्तिष्कहृदयादीनि सर्वाण्यपि तस्यैवानुशासने वर्तन्ते। स यदि जागरूकोऽस्ति तर्हि सर्वोऽभ्युदयो सर्वं निःश्रेयसं वा तेन प्राप्तुं शक्यते ॥१॥