पा꣡ता꣢ वृत्र꣣हा꣢ सु꣣त꣡मा घा꣢꣯ गम꣣न्ना꣢꣫रे अ꣣स्म꣢त् । नि꣡ य꣢मते श꣣त꣡मू꣢तिः ॥१६५९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पाता वृत्रहा सुतमा घा गमन्नारे अस्मत् । नि यमते शतमूतिः ॥१६५९॥
पा꣡ता꣢ । वृ꣣त्र꣢हा । वृ꣣त्र । हा꣢ । सु꣣त꣢म् । आ । घ꣣ । गमत् । न꣢ । आ꣣रे꣢ । अ꣣स्म꣢त् । नि । य꣣मते । शत꣡मू꣢तिः । श꣣त꣢म् । ऊ꣣तिः ॥१६५९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब जगदीश्वर का आह्वान करते हैं।
(वृत्रहा) विघ्नों को दूर करनेवाला, (सुतम्) अभिषुत किये हुए श्रद्धा-भक्ति के रस को (पाता) पीनेवाला इन्द्र जगदीश्वर (घ) निश्चय ही (आ गमत्) हमारे पास आये। (अस्मत् आरे) हमसे दूर(न) न रहे। (शतमूतिः) अनन्त रक्षाओंवाला वह (नि यमते) हमें नियन्त्रणपूर्वक चलाये ॥३॥
जगदीश्वर को अपने समीप अनुभव करके स्तोता जीव नियमपूर्वक ही जीवन बिताता है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ जगदीश्वरमाह्वयति।
(वृत्रहा) विघ्नहन्ता, (सुतम्) अभिषुतं श्रद्धाभक्तिरसम्(पाता) पानकर्ता इन्द्रो जगदीश्वरः (घ) नूनम् (आ गमत्) आगच्छतु। (अस्मत् आरे) अस्मत्तः दूरे (न) मा तिष्ठतु।(शतमूतिः) अनन्तरक्षः सः (नि यमते) अस्मान् नियच्छतु, नियन्त्रणपूर्वकं चालयतु ॥३॥
जगदीश्वरं स्वसमीपेऽनुभूय स्तोता जीवो नियमपूर्वकमेव जीवनं यापयति ॥३॥