ए꣡ह꣢ हरी꣢꣯ ब्रह्म꣣यु꣡जा꣢ श꣣ग्मा꣡ व꣢क्षतः꣣ स꣡खा꣢यम् । इ꣡न्द्रं꣢ गी꣣र्भि꣡र्गिर्व꣢꣯णसम् ॥१६५८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)एह हरी ब्रह्मयुजा शग्मा वक्षतः सखायम् । इन्द्रं गीर्भिर्गिर्वणसम् ॥१६५८॥
आ꣢ । इ꣣ह꣢ । हरी꣢꣯इ꣡ति꣢ । ब्र꣣ह्मयु꣡जा꣢ । ब्र꣣ह्म । यु꣡जा꣢꣯ । श꣣ग्मा꣢ । व꣣क्षतः । स꣡खा꣢꣯यम् । स । खा꣣यम् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । गी꣣र्भिः꣢ । गि꣡र्व꣢꣯णसम् । गिः । व꣣नसम् ॥१६५८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा द्वारा जोड़े गए दोनों हरियों के कार्य का वर्णन किया गया है।
(ब्रह्मयुजा) परमात्मा द्वारा शरीर में जोड़े गए, (शग्मा)सुखदायक वा शक्तिशाली (हरी) ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय रूप वा प्राण-अपान रूप दो घोड़े (सखायम्) अपने सखा, (गिर्वणसम्) प्रशस्त वाणियों से सेवित (इन्द्रम्) जीवात्मा को(इह) इस देह-रथ में (गीर्भिः) वाणियों के साथ (आवक्षतः) वहन करते हैं ॥२॥
जगदीश्वर की ही यह महिमा है कि उसके द्वारा जोड़े गये ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय रूप अथवा प्राण-अपान रूप घोड़े देह-रथ को निर्विघ्न चलाते हैं, जिससे उसमें बैठा हुआ जीव जीवन-यात्रा को करता हुआ योगाभ्यास द्वारा मोक्ष-पद का अधिकारी हो जाता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ ब्रह्मयुजोरुभयोर्हर्योः कार्यं वर्णयति।
(ब्रह्मयुजा) ब्रह्मणा देहे योजितौ (शग्मा) सुखकरौ शक्तौ वा(हरी) ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपौ प्राणापानरूपौ वा अश्वौ(सखायम्) सुहृद्भूतम् (गिर्वणसम्) गीर्भिः प्रशस्ताभिर्वाग्भिः सेवितम्। [गीर्भिः वन्यते सेव्यते इति गिर्वणाः तम्।] (इन्द्रम्) जीवात्मानम् (इह) देहरूपे रथे (गीर्भिः) वाग्भिः सह(आवक्षतः) आवहतः। [वह प्रापणे, लेटि सिपि अडागमे प्रथमद्विवचने रूपम्] ॥२॥
जगदीश्वरस्यैवायं महिमा यत्तेन योजितौ ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपौ प्राणापानरूपौ वा घोटकौ देहरथं निरुपद्रवं वहतो येन तत्रस्थो जीवो जीवनयात्रां निर्वहन् योगाभ्यासेन मोक्षपदाधिकारी जायते ॥२॥