प꣡न्यं꣢पन्य꣣मि꣡त्सो꣢तार꣣ आ꣡ धा꣢वत꣣ म꣡द्या꣢य । सो꣡मं꣢ वी꣣रा꣢य꣣ शू꣡रा꣢य ॥१६५७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पन्यंपन्यमित्सोतार आ धावत मद्याय । सोमं वीराय शूराय ॥१६५७॥
प꣡न्यं꣢꣯पन्यम् । प꣡न्य꣢꣯म् । प꣣न्यम् । इ꣢त् । सो꣣तारः । आ꣢ । धा꣣वत । म꣡द्या꣢꣯य । सो꣡म꣢꣯म् । वी꣣रा꣡य꣢ । शू꣡रा꣢꣯य ॥१६५७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में १२३ क्रमाङ्क पर भक्तिरस के विषय में की जा चुकी है। यहाँ ज्ञानरस का विषय है।
हे (सोतारः) ज्ञानरस को अभिषुत करनेवाले मनुष्यो ! तुम(मद्याय) आनन्दित किये जाने योग्य, (वीराय) काम-क्रोध आदि षड् रिपुओं को विशेषरूप से प्रकम्पित करनेवाले, (शूराय) शूरवीर जीवात्मा के लिए (पन्यम् पन्यम् इत्) प्रशंसनीय-प्रशंसनीय ही (सोमम्) अध्यात्म ज्ञान-रस को (आ धावत) पहुँचाओ ॥१॥
मनुष्यों को चाहिए कि वे प्रशंसा-योग्य ही भौतिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान का आत्मा में सञ्चय करें, जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस के मार्ग को भली-भाँति पार कर सकें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १२३ क्रमाङ्के भक्तिरसविषये व्याख्याता। अत्र ज्ञानरसविषय उच्यते।
हे (सोतारः) ज्ञानरसाभिषवकर्तारो मनुष्याः ! यूयम् (मद्याय) मादयितव्याय, (वीराय) कामक्रोधादीन् षड्रिपून् विशेषेण प्रकम्पयित्रे। [वीरो वीरयत्यमित्रान् वेतेर्वा स्याद् गतिकर्मणो वीरयतेर्वा। निरु० १।६।] (शूराय) बलिने जीवात्मने (पन्यं पन्यम् इत्) स्तुत्यं स्तुत्यम् एव (सोमम्) अध्यात्मं ज्ञानरसम्(आ धावत) आगमयत ॥१॥
मनुष्यैः प्रशंसार्हमेव भौतिकमध्यात्मं च ज्ञानमात्मनि संचेतव्यं येन तेऽभ्युदयनिःश्रेयसमार्गं सम्यक् सन्तरेयुः ॥१॥