नी꣢꣯व शी꣣र्षा꣡णि꣢ मृढ्वं꣣ म꣢ध्य꣣ आ꣡प꣢स्य तिष्ठति । शृ꣡ङ्गे꣢भिर्द꣣श꣡भि꣢र्दि꣣श꣢न् ॥१६५६
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)नीव शीर्षाणि मृढ्वं मध्य आपस्य तिष्ठति । शृङ्गेभिर्दशभिर्दिशन् ॥१६५६
नि꣢ । इ꣣व । शीर्षा꣡णि꣢ । मृ꣣ढ्वम् । म꣡ध्ये꣢꣯ । आ꣡प꣢꣯स्य । ति꣣ष्ठति । शृ꣡ङ्गे꣢꣯भिः । द꣣श꣡भिः꣢ । दि꣣श꣢न् ॥१६५६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब परमात्मा की व्यापकता का वर्णन करते हैं।
इन्द्र जगदीश्वर (दशभिः) दस (शृङ्गेभिः) सींगों से अर्थात् पृथिवी, अप्, तेजस्, वायु, आकाश इन पञ्च स्थूलभूतों तथा गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द इन पाँच सूक्ष्मभूतों से (दिशन्) जगत्प्रपञ्च का सर्जन करता हुआ (आपस्य) व्याप्त ब्रह्माण्ड के (मध्ये) अन्दर(तिष्ठति) विद्यमान है। हे मनुष्यो ! तुम उसकी सत्ता में विश्वास करके (शीर्षाणि) अपने मस्तिष्कों को (नि मृढ़्वम् इव) माँज लो ॥३॥
चर्मचक्षुओं से जगत् के सञ्चालनकर्ता किसी को न देखते हुए जो लोग परमेश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करते, वे व्यर्थ ही भ्रम में पड़े हुए हैं। जो श्रद्धा का दीप प्रज्वलित कर लेते हैं, वे कण-कण में परमेश्वर को देखते हैं ॥३॥ इस खण्ड में परमात्मा, राजा और योगी के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ सत्रहवें अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥ सत्रहवाँ अध्याय समाप्त ॥ अष्टम प्रपाठक में प्रथम अर्ध समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मनो व्यापकत्वं वर्णयति।
इन्द्रो जगदीश्वरः (दशभिः) दशसंख्यकैः (शृङ्गेभिः) पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशैः स्थूलभूतैः गन्धरसरूपस्पर्शशब्दै-स्तद्विषयैश्च (दिशन्) जगत्प्रपञ्चम् अतिसृजन् (आपस्य) व्याप्तस्य ब्रह्माण्डस्य (मध्ये) अभ्यन्तरे (तिष्ठति) विद्यमानोऽस्ति। हे मनुष्याः ! यूयम् तत्सत्तायां विश्वस्य(शीर्षाणि) स्वकीयानि मस्तिष्काणि (नि मृढ्वम् इव) संमार्जयध्वम्। [इवशब्दः पूरणे] ॥३॥
चर्मचक्षुर्भिर्जगत्सञ्चालकं कमप्यपश्यन्तो ये जनाः परमेश्वरसत्तायां न विश्वसन्ति ते वृथैव विभ्राम्यन्ति। ये तु श्रद्धादीपं प्रज्वालयन्ति ते कणे कणे परमेश्वरं पश्यन्ति ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मनो नृपतेर्योगिनश्च विषयाणां वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेद्या ॥