स꣡रू꣢प वृष꣣न्ना꣡ ग꣢ही꣣मौ꣢ भ꣣द्रौ꣡ धुर्या꣢꣯व꣣भि꣢ । ता꣢वि꣣मा꣡ उप꣢꣯ सर्पतः ॥१६५५
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सरूप वृषन्ना गहीमौ भद्रौ धुर्यावभि । ताविमा उप सर्पतः ॥१६५५
स꣡रू꣢꣯प । स । रू꣢प । वृषन् । आ꣢ । ग꣣हि । इ꣢मौ । भ꣣द्रौ꣢ । धु꣡र्यौ꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । तौ । इ꣣मौ꣢ । उ꣡प꣢꣯ । स꣣र्पतः ॥१६५५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा को बुला रहे हैं।
हे (सरूप) विविध रूपों से युक्त, (वृषन्) सुखों की वर्षा करनेवाले इन्द्र जगदीश्वर ! आप (इमौ) इन (भद्रौ) कल्याणकारी, (धुर्यौ) देह के धुरे को वहन करनेवाले आत्मा और मन के (अभि) प्रति (आगहि) आओ। (तौ इमौ) ये वे दोनों आत्मा और मन, (उपसर्पतः) आपके समीप पहुँच रहे हैं ॥२॥
जगदुत्पादकत्व, जगद्धारकत्व, जगत्संहारकत्व, न्यायकारित्व, दयालुत्व, निराकारत्व, अजरत्व, अमरत्व, अभयत्व, पवित्रत्व आदि परमात्मा के अनेक रूप हैं, इसीलिए उसे ‘सरूप’ सम्बोधन किया गया है। स्तोता के आत्मा और मन जब स्वयं परमात्मा को पाने का यत्न करते हैं, तब वहीँ छिपा बैठा वह उनके लिए प्रकट हो जाता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मानमाह्वयति।
हे (सरूप) विविधरूप, (वृषन्) सुखवर्षक इन्द्र जगदीश्वर! त्वम् (इमौ) एतौ (भद्रौ) कल्याणकरौ (धुर्यौ)आत्ममनोरूपौ देहधूर्वहौ (अभि) प्रति (आगहि) आगच्छ।(तौ इमौ) आत्ममनसी, त्वाम् (उपसर्पतः) उपगच्छतः ॥२॥
जगदुत्पादक धारकप्रलायकन्यायकारिदयालुनिराकाराजरामराभय- नित्यपवित्रत्वादीनि परमात्मनोऽनेकानि रूपाणि सन्त्यत एवासौ सरूपेति सम्बोधितः। स्तोतुरात्ममनसी यदा स्वयं परमात्मानं प्राप्तुं प्रयतेते तदा तत्रैव निलीनः स तदर्थमाविर्भवति ॥२॥